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वह भी कोई देस है महराज : अनिल यादव


'वह भी कोई देस है महराजहिंदी के यात्रा-संस्मरणों में अपने ढंग का पहला और अद्ïभुत वृत्तांत है। सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक मसलों पर लिखने वाले पत्रकार अनिल यादव का यह यात्रा-वृत्तांत पूर्वोत्तर की ज़मीनी हकीकत तो बयान करता ही है, वहाँ के जन-जीवन का आँखों देखा वह हाल बयान करता है जो दूरबीनी दृष्टि वाले पत्रकार और इतिहासकार की नज़र में नहीं आता। पेट्रोल-डीजल, गैस, कोयला, चाय देने वाले पूर्वोत्तर को हमारी सरकार बदले में वर्दीधारी $फौजों की टुकडिय़ाँ भेजती रही हैं।
पूर्वोत्तर केंद्रित इस यात्रा पुस्तक में वहाँ के जन-जीवन की असलियत बयान करने के साथ-साथ व्यवस्था की असलियत को उजागर करने में भी अनिल ने कोई कोताही नहीं बरती है। इस यात्रा में उन्होंने छ: महीने से ज़्यादा समय दिया और उस अनुभव को लिखने में लगभग दस वर्ष लगाए। जाहिर है कि भावोच्छ्वास का कोई झोल न हो और तथ्यजन्य त्रुटि भी न जाए इसका खयाल रखा गया है।
यात्रा की इस पुस्तक में अनिल के कथाकार की भाषा उनकी पत्रकार-दृष्टि को इस कदर ता$कत देती है कि इसे उपन्यास की तरह भी पढ़ा जा सकता है।
निश्चय ही बेहद पठनीय और हिंदी में पूर्वोत्तर केंद्रित अपने ढंग की इस पहली यात्रा पुस्तक को पाठकों का अपार स्नेह मिलेगा।

अनिल यादव
जन्म 1967। जड़ें पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जि़ले के दौलतपुर गाँव में। शिक्षा बीएचयू समेत कई विश्वविद्यालयों में। छात्र एवं किसान आंदोलनों में सक्रियता। पेशे से पत्रकार, फिलहाल अंग्रेज़ी दैनिक 'द पॉयनियरमें प्रधान संवाददाता। उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के कई हिस्सों की यात्राएँ। कई यात्राएँ बेमकसद भी। सेन्टर फार साइंस एंड इनवैरॉन्मेंट, मीडिया फेलोशिप के तहत अरुणाचल प्रदेश में कार्य। संगम राइटर्स इन्टरनेशनल रेजिडेन्सी प्रोग्राम, 2010 में भागीदारी। वर्ष 2011 में पहला कहानी-संग्रह 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तींप्रकाशित।
संपर्क : 10/7, डालीबाग कॉलोनी, तिलक मार्ग
लखनऊ-34 (उ.प्र.)
ई-मेल : oopsanil@gmail.com
'रास्ते की तलाश में’ कई अर्थों से पारंपरिक यात्रा-वृत्तांतों से भिन्न पुस्तक है। इस पुस्तक में विवरण के शब्द-चित्र ही नहीं बल्कि वास्तविक चित्र भी देखे जा सकते हैं। चित्रों की भाषा के व्यापक आयाम होते हैं। यही कारण है कि 'रास्ते की तलाश में’ यात्रा-वृत्तांत की भाषा को चित्र एक व्यापकता और समग्रता प्रदान करते हैं। हिंदी में ऐसे यात्रा-वृत्तांत कम हैं जो शब्दों को चित्रात्मक ही नहीं बनाते बल्कि चित्रों के माध्यम से एक जीवंत भाषा को संप्रेषित करते हैं।



हिंदी में बहुत श्रेष्ठ यात्रा-वृत्तांत लिखे गए हैं। यह एक ऐसी शैली में है जिसके माध्यम से लेखक आँखों देखी घटनाओं, स्थानों और व्यक्तियों को अपने शब्दों के माध्यम से पुनर्जीवित करता है। यात्रा एक दृश्यात्मक अनुभव है। असगर वजाहत के यात्रा-वृत्तांत जैसे ईरान यात्रा पर केंद्रित 'चलते तो अच्छा था’ और पाकिस्तान यात्रा पर आधारित 'पाकिस्तान का मतलब क्या’ पाठकों को अपने साथ यात्रा पर ले जाते हैं। इस यात्रा में ऐसे अनुभव होते हैं जो प्राय: समाजशास्त्रियों, पत्रकारों और अन्य की पकड़ में नहीं आते क्योंकि लेखक की सृजनात्मक और व्यापक दृष्टि ही उनसे साक्षात्कार कर सकती है।
 
 
 
असगर वजाहत


जन्म, 1946, फतेहपुर (उ.प्र.)
हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं जिनके छ: उपन्यास, पाँच कहानी-संग्रह, छ: पूर्णकालिक नाटक, एक नुक्कड़-नाटक संग्रह, पटकथा लेखन व्यावहारिक निर्देशिका, और ईरान तथा पकिस्तान की यात्राओं पर केंद्रित दो पुस्तकें छप चुकी हैं।
उनके नाटकों को हबीब तनवीर, एम. के. रैना, दिनेश ठाकुर, राजेन्द्रनाथ, शीमा किरमानी जैसे निर्देशों ने मंच पर प्रस्तुत किया है। उमेश अग्निहोत्री ने उनके बहुचर्चित नाटक 'जिस लाहौर नइ देख्या...’ का मंचन वाशिंगटन डी.सी. के कैनेडी सेंटर में किया था। इस नाटक को सिडनी, कराची, दुबई और लाहौर के अतिरिक्त देश के प्रमुख शहरों में मंचित किया गया है। इसके अनुवाद और मंचन गुजराती, मराठी और कन्नड़ भाषाओं में किए गए हैं। 'जिस लाहौर...’ पर विख्यात निर्देशक राजकुमार संतोषी फीचर फिल्म बना रहे हैं।
असगर वजाहत ने कई फिल्मों की पटकथाएँ भी लिखी हैं।
भुवनेश्वर नाट्य संस्थान, हिंदी अकादमी, कथा यूके सहित कई सम्मानों से सम्मानित।
सम्प्रति, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में हिंदी के प्रोफेसर।
संपर्क : 79, कला विहार, मयूर विहार फेज वन
दिल्ली-110091

खरामा-खरामा : पंकज बिष्‍ट

''हिमालय में जुड़े व्यक्ति को सहयाद्री के ये पहाड़ बहुत ही सौम्य और शिशुवत लगते हैं। हालांकि उम्र में बड़े हैं। छोटी-सी वघोरा नदी के दूसरी ओर अर्धचंद्राकार गुफाओं को पहली बार देख कर, दर्शक, सब कुछ सुना होने के बावजूद, अनुमान नहीं कर पाता कि वह सौंदर्य के किस लोक में प्रवेश करने जा रहा है। इस छोटी-सी नदी को (इस तरह की जलधाराओं को कुमाऊँनी में गधेरा यानी झरना या नाला कहा जाता है जो हमारे पहाड़ों में हर मोड़ पर मिल जाते हैं) इन गुफाओं ने दुनिया के न$क्शे पर अमर कर दिया है। कह नहीं सकता कि बरसात में यह नदी कैसी लगती होगी। पर दिसंबर में इसमें इतना भी पानी नहीं था कि एडिय़ाँ डूब पाएँ। एक क्षीण-सी जलधारा। पाँच किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है। इसका नाम है अजंता और अंग्रेज़ों ने इन्हें इसी नाम से पुकारना शुरू कर दिया। अजंता सुंदर नाम है पर मराठी में यह अजिंठा है, बल्कि कहना चाहिए अजिंठा लेणी।’’



(इसी पुस्तक से...)
 
 
पंकज बिष्ट
जन्म, 20 फरवरी, 1946 को मुंबई में।
शिक्षा : 1969 में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए.।
1969 में भारत सरकार की सूचना सेवा में प्रवेश। इस दौरान 'योजना’ अंग्रेज़ी में सहायक संपादक, आकाशवाणी के अंग्रेज़ी समाचार विभाग में संवाददाता और समाचार संपादक, $िफल्म प्रभाग में पटकथा लेखक का कार्य किया।
1993 से प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की पत्रिका 'आजकल’ के संपादक।
1998 में स्वैच्छिक अवकाश।
1999 से 'समयांतर’ का मासिक रूप में पुनप्र्रकाशन।
पहली कहानी 1967 में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपी। पहला कहानी-संग्रह 1980 में 'पंद्रह जमा पच्चीस’।
कृतियाँ : 'लेकिन दरवाजा’, 'उस चिडिय़ा का नाम’, 'पंखवाली नाव’ (उपन्यास), 'बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’, 'टुंड्रा प्रदेश तथा अन्य कहानियाँ’, 'चर्चित कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह), 'गोलू और भोलू’ (बाल उपन्यास), 'हिंदी का पक्ष’, 'कुछ सवाल कुछ जवाब’, 'शब्दों के घर’ (लेख संग्रह)
कई भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी तथा कुछ अन्य योरोपीय भाषाओं में भी अनुवाद।
संपर्क : 98, कला विहार, मयूर विहार फेज वन
दिल्ली-110091
 

'चंद्रेश्वर कर्ण रचनावली' का लोकार्पण

विश्व पुस्तक मेले में चंद्रेश्वर कर्ण रचनावली' के लोकार्पण के अवसर पर आलोचक नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विष्णु नागर, मदन कश्यप, महेश कटारे, नुजहत हसन एवं अन्य विद्वानों ने विस्तार से चंद्रेश्वर कर्ण के रचना कर्म पर चर्चा की. नामवर जी ने 40 साल पुराने संस्मरण को साझा किया. प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने कहा की अमूमन रचनावली किसी लेखक के देहावसान पर प्रकाशित होती है लेकिन यहाँ से एक नयी परंपरा की शुरुआत होनी चाहिए. क्योंकि रचनावली के बाद उस लेखक की चर्चा समाप्त हो जाती है लेकिन 'चंद्रेश्वर कर्ण रचनावली' से इस लेखक की चर्चा की शुरुआत होगी. उन्होंने आगे कहा की चंद्रेश्वर कर्ण मूलतः कथा-आलोचक हैं पर उनकी आलोचना का क्षेत्र व्यापक है.उन्होंने साहित्य की हर विधाओं पर लिखा है. चंद्रेश्वर जी झारखण्ड के आदिवासी जीवन, लोक-नृत्य,गीत एवं समस्याओं पर जिस गंभीरता के साथ लिखा है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

अशोक भौमिक की दो नवीनतम पुस्‍तकें


समकालीन भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने : अशोक भौमिक
हुसैन आज़ादी के बाद के भारतीय कला परिदृश्य में सबसे महत्त्वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला को एक सुस्पष्ट दिशा दी है जो दुर्भाग्य से विकसित होते बाज़ार के अंधेरे में आम जनता के लिए लगभग ओझल रही है। मगर काफी समय बाद आज एक बार फिर हुसैन के चित्र चर्चा के केंद्र में है।
                हुसैन और उनके बहाने समकालीन भारतीय चित्रकला के महत्त्वपूर्ण चित्रकार और उनके चित्र ही नहीं, इस दौर की चुनौतियों को लेकर भी एक मुकम्मल बहस को दिशा देने में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक की यह किताब कारगर सिद्ध होगी। इस किताब से इस दौर की कला मात्र को ही समझने में मदद नहीं मिलती बल्कि कला और समाज व बाज़ार के संबंधों एवं इससे जुड़ी अन्य जटिलताओं को भी समझने-सुलझाने में यह काम आएगी। हिंदी में यह अपने ढंग की पहली किताब है। बहसतलब, चाक्षुष और बेहद पठनीय भी!...


शिप्रा एक नदी का नाम है
मेरे साथ ऐसा बहुत कम हुआ है, जब मैंने कोई किताब हाथ में ली हो और एक बैठक में पढऩे की बाध्यता बन आई हो। अशोक भौमिक के साथ मेरी यह बाध्यता बन आई। 'शिप्रा’—यह किताब मुझे अपनी पीढ़ी के उन सपनों-आकांक्षाओं के रहगुज़र से लगातार साक्षात्कार कराती है...जब गुजिश्ता सदी के सातवें दशक में गांधी-नेहरू के भारत के नौजवानों की जेब में देखते-देखते माओ की लाल किताब आ गई। विश्वविद्यालयों के कैंटिनों से लेकर सड़क तक यह पीढ़ी परिवर्तनकामी बहस में उलझी रही, अपनी प्रत्येक पराजय में एक अर्थपूर्ण संकेत ढूँढ़ती रही।
ऐसा अकारण नहीं हुआ था। गांधी-नेहरू के बोल-वचनों की गंध-सुगंध इतनी जल्दी उतर जाएगीलोकतंत्र के सपने इतनी शीघ्रता से बिखर जाएँगेइसका कतई इम्कान नहीं था, मगर हुआ। शासक वर्ग के न केवल कोट-कमीज वही रहे, जहीनीयत और कायदे-कानून भी वही रहे जिसपर कथित आज़ाद मुल्क को चलना था। वे इम्प्रेलियिज़्म के इन्द्रधनुष से प्रभावित-प्रेरित होते रहे। इसके जादुई चाल से, आज मुक्त हो पाने का सवाल तक पैदा नहीं होता। 'शिप्रा एक नदी का नाम हैपढ़ते हुए मुझे एक मई, 1942 के दिन सुभाष चन्द्र बोस के एक प्रसारण में कही बात का स्मरण हो आया है कि 'अगर साम्राज्यवादी ब्रतानिया किसी भी तरह यह युद्ध जीतती है, तो भारत की गुलामी का अंत नहीं।यह बात आज भी उतनी ही शिद्दत से याद की जानी चाहिए।
मगर दुनिया बदल चुकी है। विचारों के घोड़े निर्वाध दौड़ लगाते हैं। अभ्यस्त-विवश कृषक मज़दूर और मेहनतकश आम आदमी के क्षत-विक्षत स्वप्नों-आकांक्षाओं को आकार और रूपरंग देने के सोच का सहज भार नौजवानों ने उठाया।
शिप्रा थी, शिप्रा को लेखक ने नहीं गढ़ा। किसी भी पात्र को लेखक ने नहीं गढ़ा। वह अपने आप में है। ठोस है। उसकी साँसें अपनी हैं। यह अहसास हमेशा बना रहता है कि मैंने इन्हें देखा है। अपने अतीत में देखा है। आज भी कई को उसी ताने-बाने में देखता हूँ, तो ठिठक जाता हूँ।
लेखक ने सिर्फ यह किया कि उस दुर्घर्ष-दुर्गम दिनों को एक काव्य रूप दे दिया ताकि वह कथा अमरता को प्राप्त कर जाए। उसकी ध्वनि, उसकी गूँज प्रत्यावर्तित हो जाए, होती रहे। इसलिए और इसीलिए मैं अशोक भौमिक के लेखक के प्रति आभारी हूँ कि मुझे या हमारी पीढ़ी को एक आईना दिया।
महाप्रकाश
अशोक भौमिक
समकालीन भारतीय चित्रकला में एक जाना-पहचाना नाम।
जन्म : नागपुर 31 जुलाई, 1953
वामपंथी राजनीति से सघन रूप से जुड़े रहे।
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक। प्रगतिशील कविताओं पर आधारित पोस्टरों के लिए कार्यशिविरों का आयोजन एवं आज भी इस उद्देश्य के लिए समर्पित।
देश-विदेश में एक दर्जन से ज़्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन।
    'मोनालीसा हँस रही थी' पहला उपन्यास,
'आईस-पाईस' कहानी-संग्रह, 'बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच', 'शिप्रा एक नदी का नाम है' पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति, स्वतंत्र चित्रकारिता।

डॉक्टर ग्लास : जलमार सॉडरबैरिये


डॉक्टर ग्लास : जलमार सॉडरबैरिये : अनुवादक : द्रोणवीर कोहली
'डॉक्टर ग्लासउन्नीसवीं सदी के अवसान काल के दौरान स्टॉकहोम नगर में घटित एक अनोखी प्रेम कहानी के परित: चलता स्वीडिश भाषा का यादगार उपन्यास है। डॉक्टर ग्लास जो कि पेशे से चिकित्सक (सर्जन) है एक बूढ़े पादरी की नवयौवना खूबसूरत बीवी के प्रति आसक्त हो जाता है। यह आसक्ति डॉक्टर ग्लास की मानसिक स्थिति मात्र ही नहीं बदलती, उसके दैनंदिन जीवन और व्यवहार को भी बदलने में उत्प्रेरक सिद्ध होती है। नायिका (मिसिज ग्रिगोरियस) डॉक्टर से यह गुजारिश करती है कि वह कुछ ऐसी बीमारी उसे बताए और इस बाबत पादरी को ऐसा सलाह दे कि पादरी अपनी बीवी मिसिज ग्रिगोरियस की देह से दूर रहे। थोड़े असमंजस के बाद डॉक्टर मान जाता है। और तब ऐसा करते-करते एक दिन उस पादरी को दवा के नाम पर ज़हर तक दे डालता है।
                तमाम जद्दोजहद के बीच नैतिकता-अनैतिकता, जायज-नाजायज, धर्म-अध्यात्म आदि को लेकर डॉक्टर ग्लास लंबे अंतद्र्वंद्वों से गुज़रता है और आ$िखर पाता है कि वह जिस खूबसूरत स्त्री के प्रति इतने घनघोर प्रेम  और सपने पाल रखा था वह उसके प्रेम में नहीं है। अपनी खूबसूरती से चकाचौंध पैदा करने वाली मिसिज ग्रिगोरियस की निजी जि़ंदगी और उसकी अपनी प्रेम कहानी का सच इस उपन्यास का चरम है।
                लगभग सवा सौ वर्ष पहले के स्टॉकहोम, उसकी खूबसूरती और नगर-व्यवस्था आदि का वर्णन डायरी शैली में लिखे पत्रकार-नाट्ïयकार ज़लमार सॉडरबैरिए के इस उपन्यास को ज़्यादा विश्वसनीय और महत्त्वपूर्ण बनाता है। मूल स्वीडिश में 1905 में छपे इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद, नाट्यांतरण के अलावा इस पर बनी $िफल्म भी का$फी चर्चित और सराहनीय रही है।

ज़लमार सॉडरबैरिए
कथाकार-उपन्यासकार, कवि और नाटककार ज़लमार सॉडरबैरिए (Hzalmar Soderberge) का जन्म 02 जुलाई, 1869 को हुआ। मूल स्वीडिश में 1905 में प्रकाशित 'डॉक्टर ग्लासका अंग्रेज़ी अनुवाद 1963 में आया फिर इस पर फिल्म भी बनी। स्वीडिश भाषा में इनकी दो दर्जन से ज़्यादा कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनमें से आधा दर्जन से ज़्यादा किताबें अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध हैं। उपन्यासकार सॉडरबैरिए पत्रकार के रूप में भी चर्चित रहे हैं। 14 अक्टूबर, 1941 को इनकी मृत्यु हुई।

द्रोणवीर कोहली
नौ मौलिक उपन्यासों एवं एक कहानी-संग्रह के रचयिता एवं संपादक द्रोणवीर कोहली अच्छे अनुवादक भी हैं।
                फ्रेंच लेखक एमील ज़ोला के वृहद उपन्यास 'जर्मिनलका 'उम्मीद है, आएगा वह दिनशीर्षक से अनुवाद करने के अतिरिक्त इन्होंने समय-समय पर विश्व प्रसिद्ध कई रचनाकारों की रचनाओं को भी हिंदी में प्रस्तुत किया है।
इनका जन्म 1932 के आसपास हुआ। 'आजकल’, 'बाल भारती’, 'सैनिक समाचारसाप्ताहिक के संपादक तथा आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता एवं प्रभारी समाचार संपादक की हैसियत से भी कार्य कर चुके हैं।