समय की खराद पर : गौरीनाथ (Samay Ki Kharad Par : Gaurinath)
इन लेखों का विषय वैविध्य इस बात की तस्दीक करता है कि उदारीकरण ने हर तरह की केन्द्रीयता को नष्ट कर एक विभ्रम की स्थिति निर्मित कर दी है। लेखक इस बात से पूरी तरह वािकफहै और इसीलिए अपने समय के सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन को बहुलताओं के कोलाज़ के रूप में प्रस्तुत करता है। इस अर्थ में ये लेख एक नई समग्रता की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं—बहुलताओं का कोलाज़। संस्कृति के उत्तर-आधुनिक रूपों और उपभोक्तावादी मानस पर सबसे अधिक चोट इन लेखों में किया गया है। फिल्मों पर लिखे लेखों को अपसंस्कृति की आलोचना के बतौर पढ़ा जा सकता है। चमक और ताकत के प्रति नकार की चेतना ही कठिन समय में प्रतिरोध का सूक्ष्म विरोध निर्मित करती है।
इस आधे अंधे मोड़ पर इन टिप्पणियों को पढऩा बेहद लम्बी यात्रा पर निकले मुसाफिर का किसी पेड़ के नीचे दो घड़ी सुस्ताने जैसा है। अपने फेफड़ों में ताज़ा हवा भरने की एक अनिवार्य कोशिश। अगले मोड़ पर ज़हरीली हवाओं का झोंका आने को है, ऐसे में अपने फेफड़े दुरुस्त रखना तभी संभव है जब आप समय की खराद पर गुज़रने से गुरेज न करें।
—अच्युतानन्द मिश्र
गौरीनाथ
गौरीनाथ का जन्म फाल्गुन संक्रान्ति 1969 (मार्च की कोई तारीख)को तत्कालीन सहरसा (वर्तमान सुपौल) जि़ला के कालिकापुर गाँव में हुआ।
1991 से कथा-लेखन की शुरुआत। मैथिली में अनलकांत के नाम से भी कई रचनाएँ प्रकाशित।
हिंदी में 'नाच के बाहर’, 'मानुस’ और 'बीज-भोजी’ कहानी-संग्रह के बाद वैचारिक लेखों और टिप्पणियों का पहला संकलन 'समय की खराद पर’। मैथिली में उपन्यास 'दाग’ प्रकाशित और कुछ पुस्तकें प्रकाशनाधीन। 'हिंदी की चुनिंदा गज़लें’, 'भारतीय दलित साहित्य और ओमप्रकाश वाल्मीकि’ संपादित पुस्तकें। कुछ कहानियाँ अन्य भाषाओं में भी अनूदित-प्रकाशित। कहानी के अलावा अखबारों और पत्रिकाओं में कई वैचारिक लेख, संस्मरण आदि प्रकाशित।
'नाच के बाहर’ के लिए हिंदी अकादमी, दिल्ली का 'कृति सम्मान’, पटना पुस्तक मेला का 'विद्यापति पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का 'युवा पुरस्कार’ आदि से सम्मानित।
पिछले पच्चीस वर्षों से पत्रकारिता।
सम्प्रति, सम्पादक हिंदी त्रैमासिक 'बया’ और मैथिली त्रैमासिक 'अंतिका’।
संपर्क : सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-201005
ई-मेल : antika56@gmail.com
ग्रामीण संवेदना में पगा प्रेम भी यहाँ अभिनव रूप में है। 'पटरी’ और 'फिर कब मिलोगे?’ जैसी स्वाभाविक प्रेम की कहानियाँ भुलाए नहीं भूली जा सकतीं। 'परांत:’ की व्यंजना आधुनिक समाज में मनुष्य के अलग-अलग चेहरों का रूपक दिखाने में कामयाब है।
यूँ भी कहा जा सकता है कि 'परांत:’ की कहानियाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद से निकले लेखक राम बदन राय की जीवन-यात्रा के परित: घटित होती हैं और सकल हिंदी प्रदेश की हो जाती हैं। गहन जीवनानुभूति में पगी भाषा की रागात्मकता इसकी जान है।
राम बदन राय
जन्म : 7 जुलाई, 1950 (माँ के द्वारा बताई जन्म तिथि, 1948 के क्वार मास की अमावस्या) को गाजीपुर (उ.प्र.) जि़ले के जोगा मुसाहिब गाँव में।
गँवई गुहार (काव्य-संग्रह), फिरकीवाली (डोम जीवन पर आधारित उपन्यास), शिवायन (खण्ड काव्य), कृष्णायन (प्रबंध काव्य), कश्यप कीर्ति (इति.), द्वार खड़ा अभिसार (काव्य-संग्रह) तथा 'फागुन भर हमसे मति बोलऽ’ (भोजपुरी काव्य-बारहमासा) पुस्तकें प्रकाशित। कुछ प्रकाशनाधीन। इनके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं आकाशवाणी से तकरीबन तीन सौ रचनाओं का प्रकाशन-प्रसारण। वाराणसी से प्रकाशित 'जनवार्ता’ एवं युसुफपुर-गाजीपुर से प्रकाशित 'अगुआ दस्ता’ अखबारों में कुछ दिनों तक क्रमश: 'सोचनीय जी सोचते हैं’ तथा 'राम बदन राय का रविवारीय रोजनामचा’ स्थायी स्तंभों का लेखन।
'अरावली का नाहर’, 'पिघल उठा चम्बल’, 'कण-कण में भगवान’, 'शेर-ए-कश्मीर’ (युद्ध 1965) एवं 'औरंगजेब का सिरदर्द’ शीर्षक नाटकों का लेखन एवं मंचीन निर्देशन। ग्रामीणों से चंदा माँगकर, साथ ही वैवाहिक कार्यक्रमों में नाट्ïयमंचन द्वारा धन उगाहकर, अपने गाँव में एक गल्र्स स्कूल तथा शिवालय के नाम पर एक सार्वजनिक सभावास का निर्माण।
संप्रति, इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर पद से 2013 में अवकाशोपरांत, गाँव की खेती-गृहस्थी के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : जोगा मुसाहिब, गाजीपुर (उ.प्र.)
खैरागढ़ नांदगांव: संजीव बख्शी
संजीव बख्शी के लेखन की खासियत है कि वो बिना मेकप किये गाँव, शहर और मनुष्य की वास्तविक सूरत दिखाते हैं। कोई आडम्बर नहीं। जितने सहज संजीव खुद हैं, उतना ही सहज उनका लेखन लेकिन इस सहजता के भीतर एक सैलाब सा उमड़ता दीखता है। गहन वैचारिकता। मूक-बधिर से हो चुके ग्रामीण समाज के दु:ख-दर्द और समस्याओं को बगैर नारेबाज़ी किये संजीव जी आवाज़ देते हैं। और शायद यही गुण उन्हें कालजयी लेखकों की श्रेणी में खड़ा करता है।
'खैरागढ़ नांदगाँव’ किसी सिनेमा जैसा हमारी आँखों के सामने चलता रहता है। कथ्य को दृश्यात्मक ढंग से पेश करने में उनका जवाब नहीं। इसीलिए हाल ही में उनके लिखे 'भूलन कांदा’ पर एक फिल्म का निर्माण हुआ और उसे पुरस्कारों से नवाज़ा जाने लगा है।
आप 'खैरागढ़ नांदगाँव’ क्यों पढ़ें?... अगर आप छत्तीसगढ़ के सीधे-सरल स्वभाव और मनोविज्ञान को समझना चाहते हों तो पढ़ें। आप जल-जंगल और ज़मीन के विराट विनाश को समझना चाहते हों तो पढ़ें। आप घिसे पिटे मुहावरों, बिम्बों और कथ्य से ऊब चुके हों तो पढ़ें। आप दुनिया में जहाँ भी रहते हों और अपने परिवेश से प्रेम करते हों तब तो अवश्य पढ़ें।
ये लेखक इसलिए विशिष्ट है क्योंकि हर स्थान के अंधकार और सुनसान के फर्क को पकड़ लेता है और अंतत: रोशनी और कोलाहल पैदा करके ही मानता है।
—अशोक मिश्र
हिंदी फिल्मों के चर्चित पटकथा लेखक
संजीव बख्शी
जन्म : 25.12.1952, खैरागढ़ (छ.ग.)
शिक्षा : एम.एससी. (गणित)
दिग्विजय महा विद्यालय राजनांदगाँव
प्रकाशित पुस्तकें : कविता-संग्रह : तार को आ गई हल्की सी हँसी (1994), भित्ति पर बैठे लोग (2000), जो तितलियों के पास है (2004), सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था (2009), मौहा झाड़ को लाईफ ट्ी कहते हैं जयदेव बघेल (2010), (चुनी हुई कविताएँ)। उपन्यास : भूलन कांदा (2012) केबाद खैरागढ़-नांदगाँव (2017)। संस्मरण : खैरागढ़ में कट चाय और डबल पान (2014)।
अन्य पुस्तिकाएँ : किसना, यह ऐसा समय हो जैसे सब कुछ समुद्र, हफ्ते की रोशनी एवं अन्य कविताएँ
रचनाएँ संकलित : पूरी रंगत के साथ, साधो
जग बौराना
संपादन : सूत्र अंक 4 का अतिथि संपादन
सम्मान : ठाकुर पूरन सिंह स्मृति सूत्र सम्मान, 2002, 'भूलन कांदा’ के लिए प्रेमचंद कथा सम्मान (बांदा, उ.प्र., 2012), 'सफेद से कुछ ही दूरी पर पीला रहता था’ के लिए हेमचंद्राचार्य ज्ञानपीठ पाटण, गुजरात द्वारा हेमचंद्राचार्य साहित्य अलंकरण (2010-11)।
'भूलन कांदा’ पर फीचर फिल्म निर्मित।
संयुक्त सचिव छ.ग. शासन से सेवा निवृत्त।
संपर्क : आर-5, अवंति विहार कॉलोनी,
सेक्टर-2, रायपुर-492006 (छ.ग.)
ई-मेल : buxysanjeev@gmail.com
रामलीला मैदान : अनुरंजन झा
अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी किसी नई विचारधारा, बड़ी राजनैतिक-सामाजिक लड़ाई या लंबे राजनैतिक प्रशिक्षण से निकलने वाले नेता और राजनैतिक दल नहीं हैं। इसकी जगह ये एक राजनैतिक परिघटना की तरह हैं जिसमें तब की स्थितियाँ, अन्य राजनीतिक खिलाडिय़ों/नेताओं के फैसलों और कामों तथा खुद अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों के फैसलों ने मिल-जुलकर आगे बढ़ाया। इस राजनैतिक परिघटना ने मुल्क की राजनीति और शासन में क्या उम्मीद जगाई, कहाँ तक पहुँची और कितनी निराशा पैदा की यह गम्भीर अध्ययन और चिंतन का विषय है। पर अरविन्द और आप की तरह यह काम भी सामान्य पढ़ाई वाले ढंग से नहीं हो सकता। इस आन्दोलन को करीब से देखने, इसके मुख्य लोगों को करीब से जानने और पहले ही चुनाव में बिना रसीद काला धन लेने का स्टिंग कर इसकी पहली गिरावट पर ही खतरे की घंटी बजाकर चेतावनी देने वाले पत्रकार अनुरंजन झा की यह किताब इस तरह के अध्ययन-विश्लेषण की पहली गंभीर कोशिश है। लेखक इस नेता और दल के उभरने वाले दौर का लगभग आँखों देखा हाल के माध्यम से इसकी उन कमज़ोरियों और अब लग रहे फरेब को उजागर करते हैं जो इसे तब तो आसमान पर ले गए लेकिन आगे चलकर अरविन्द को औसत से भी कम दर्जे का नेता और आप को एक बड़े आंदोलन को नाश करने वाली पार्टी बना देते हैं। और इसकी अच्छी बात यह है कि इसमें बाहर छपी सामग्री की मदद लेने या बेमतलब संदर्भों का पहाड़ खड़ा करने की जगह उन्हीं बातों को मजबूती से और एकदम चित्रवत रूप में रखा गया है जिसे लेखक ने खुद से देखा और जाना है। हैरानी नहीं कि इसी चलते किताब ऐसी बन गई है जिसके सामने आते ही कुछ नए विवाद और खंडन-मंडन का खेल भी शुरू हो सकता है। पर यह कहना उससे भी आसान है कि हाल की राजनीति की इस बड़ी परिघटना पर अभी इस तरह की कोई किताब नहीं आई है।—अरविन्द मोहन
अनुरंजन झा
अनुरंजन झा दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। बिहार के चम्पारण के छोटे से गाँव फुलवरिया में जन्मे लेखक की यह पहली पुस्तक है। समाज और सत्ता को अलग नज़रिए से देखने की वजह से इस पुस्तक का जन्म हुआ है। टीवी पत्रकारिता में अपनी खास पहचान बनाने वाले लेखक ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास स्नातक की शिक्षा के दौरान ही देश के तमाम अखबारों-पत्रिकाओं के लिए लिखना शुरू किया। बाद में आईआईएमसी से पत्रकारिता की डिग्री ली। जनसत्ता से करियर शुरू किया फिर जी न्यूज़, आजतक, बीएजी िफल्म्स होते हुए इंडिया टीवी की लांचिंग टीम का हिस्सा बने। इंडिया टीवी के चेयरमैन रजत शर्मा ने इस युवा पत्रकार को चैनल का पहला न्यूज़ बुलेटिन प्रोड्यूस करने का जिम्मा दिया। 30 से कम की उम्र में ही इंडिया न्यूज़ चैनल के न्यूज डायरेक्टर बने और फिर बाद में सीएनईबी के प्रधान संपादक और सीओओ। प्रयोगधर्मी होने की वजह से देश का पहला मैट्रोमोनियल चैनल शगुन शुरू किया।
खोजी पत्रकारिता में अलग पहचान बनाते हुए कोबरापोस्ट को ऊँचाई तक पहुँचाने में अनिरुद्ध बहल का साथ दिया। समाज और संस्कार दोनों के उत्थान के लिए पत्रकारिता से इतर भी प्रयासरत रहते हैं। सही वक्त पर डिजिटल पत्रकारिता का भविष्य भाँपते हुए 2010 में www.mediasarkar.com शुरू किया। वर्तमान में मीडिया सरकार के सीईओ हैं और अपनी कंपनी से देश दुनिया के टीवी चैनलों के लिए कार्यक्रम भी बनाते हैं।