हिंदी में समाचार : अरविंद दास
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| PRICE : 390.00 (HB) |
भूमंडलीकरण के साथ पनपे नव पूँजीवाद और हिंदी अखबारों के बीच संबंध काफी रोचक हैं। हिंदी अखबार जो अंग्रेजी अखबारों के पिछलग्गू बने हुए थे, अपनी निजी पहचान लेकर सामने आए।
संचार क्रांति के दौर में इनके व्यावसायिक हितों के फलने-फूलने का खूब मौका मिला और आज ये 'ग्लोकल' हैं।
उदारीकरण के बाद भारतीय राज्य और समाज के स्वरूप में आए परिवर्तनों के बरक्स भारतीय मीडिया ने भी खबरों के चयन, प्रस्तुतीकरण, प्रबंधन आदि में परिवर्तन किया। हिंदी अखबारों की सुर्खियों पर नजर डालें तो स्पष्ट दिखेगा कि खबरों के मानी, उसके उत्पादन के ढंग बदल गए हैं। अखबारों के माध्यम से बनने वाली हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में जहाँ राजनीतिक खबरों और बहस-मुबाहिसा के बदले मनोरंजन का तत्व हावी है, वहीं भाषा, स्त्री और दलित विमर्श का एक नया रूप उभरा है। मिश्रित-अर्थव्यवस्था में जो मध्यवर्गीय इच्छा दबी हुई थी, वह खुले बाजार में अखबारों के पन्नों पर खुल कर अभिव्यक्त हो रही है। खबरों के कारोबार में 'पेड न्यूज’ फाँस नजर आने लगी है। हिंदी पत्रकारिता की इन स्थितियों को यह शोधपरक किताब पहली बार सामग्री विश्लेषण और उदाहरणों के जरिये निरूपित करती है।
वर्ष 1991 में उदारीकरण के रास्ते आए भूमंडलीकरण ने हिंदी पत्रकारिता को किस रूप में प्रभावित किया? पिछले दो दशकों में भारतीय राज्य, समाज और भूमंडलीकरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के संबंध किस रूप में विकसित हुए? शोध और पत्रकारिता के अपने साझे अनुभव का इस्तेमाल कर अत्यधिक परिश्रम से लेखक ने इसका विवेचन और विश्लेषण किया है।
'हिंदी में समाचार’ के मार्फत हिंदी पत्रकारिता में रुचि रखनेवाले तो इनमें आए बदलाव से जुड़ीं स्थितियों-परिस्थितियों को बेहतर ढंग से समझ ही सकते हैं, हिंदी पत्रकारिता के छात्रों-शोधार्थियों के लिए भी यह एक अनिवार्य सी पुस्तक है।
अरविंद दास

जन्म : 1978 में बेलारही, मधुबनी (बिहार) में।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई, आईआईएमसी से पत्रकारिता में प्रशिक्षण और जेएनयू से हिंदी साहित्य और मीडिया में शोध। भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स। नेशनल कौंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज से उर्दू में डिप्लोमा। जर्मनी के जिगन विश्वविद्यालय से पोस्ट डॉक्टरल शोध। पीएचडी के लिए जूनियर रिसर्च फेलोशिप और पोस्ट डॉक्टरल शोध के लिए जर्मन रिसर्च फांउडेशन फेलोशिप।
देश-विदेश में मीडिया को लेकर हुए सेमिनारों, वर्कशॉपों में शोध पत्रों की प्रस्तुति। भारतीय मीडिया के विभिन्न आयामों को लेकर जर्मनी के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान। इंटरनेशनल सेंटर फॉर जर्नलिस्ट के दक्षिण एशियाई देशों के पत्रकारों के लिए 2012 में 'न्यू मीडिया’ को लेकर ट्रेनिंग और कोलंबो में हुए वर्कशॉप में भागीदारी।
बीबीसी के दिल्ली स्थित ब्यूरो में सलाहकार और स्टार न्यूज में मल्टीमीडिया कंटेंट एडिटर रहे। 'अलग अंदाजÓ के ब्लॉगर। ब्लॉग लेखों का संकलन 'गुल, नजूरा और रामचंद पाकिस्तानी’ शीघ्र प्रकाश्य। मिथिला कला को लेकर एक लघु पुस्तिका 'गर्दिश में एक चित्र शैली’ प्रकाशित।
फिलहाल पिछले दो वर्षों से करेंट अफेयर्स कार्यक्रम बनाने वाली प्रतिष्ठित प्रोडक्शन कंपनी आईटीवी के सीनियर रिसर्चर। विशेष तौर पर सीएनएन-आईबीएन पर प्रसारित होने वाले चर्चित कार्यक्रम 'डेविल्स एडवोकेट’ और 'लास्ट वर्ड’ के शोध की जिम्मेदारी।
संपर्क : बीडी स्ट्रीट, 14 एच, डीडीए फ्लैट्स, मुनिरका, नई दिल्ली-110067
ई-मेल : arvindkdas@gmail.com
झाँकी : व्योमेश शुक्ल
झाँकी : व्योमेश शुक्ल
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| मूल्य : 75.00 |
कामायनी की कहानी जिन पंक्तियों से बनती है महज़ उनसे भी महाकाव्य में शामिल बड़ी दार्शनिक समस्याओं की झाँकी मिल जाएगी। बाकी कविता भी अनिवार्य है और इस चयन में वह आलोकित ही होती है। ऐसे ही, पंक्तियों के क्रम में भी कहीं-कहीं कुछ उलटफेर है। प्रसाद ने मनोविकारों के आधार पर सर्गों की रचना की है। हमने कहीं उन मनोविकारों को स्वाधीन चरित्रों की तरह विकसित किया है—कहीं वे दूसरे चरित्रों में घुल गये हैं और कहीं उन्हें पूरा छोड़ भी दिया गया है। यों, यह नाट्यालेख भले ही मूल कविता-पंक्तियों के स्तंभ पर खड़ा है, उससे पूरी तरह स्वायत्त है और पढऩे की मेज़ की जगह रिहर्सल के फ्लोर पर—मंचन की ज़रूरतों के मुताबिक संभव हुआ है।
'कामायनी’ के साथ हमने 'शक्तिपूजा’ के मंचन का फैसला किया। 1936 में लिखी गयी इस कृति की रचना के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर, वैसे भी एक मौका बनता था। राम के आत्मसंघर्ष में निराला का संग्राम तो दिखता ही है, अपने छोटे-छोटे समर भी हम उसमें खोजते रहे हैं। अधुनातन अंतर्वस्तु को पारंपरिक देहभाषा के ज़रिये अभिव्यक्त किया जा सके, यह हमेशा हमारा स्वप्न है। बनारस की रामलीला जैसे प्राचीनतम् नाट्यरूप के साथ आधुनिक रंगमंच की अंत:क्रिया ज़्यादा प्रत्यक्ष और रोमांचक हो, इस संकल्प को भी हमने एक चुनौती की तरह लिया है। 'शक्तिपूजा’ में यथावसर, यथाशक्ति रामलीला के तत्व को विन्यस्त और चरितार्थ करने का प्रयत्न किया गया है। इस कविता की भाषा में एक स्वत:स्फूर्त संगीत अंत:सलिल है।
व्योमेश शुक्ल
25 जून, 1980 को वाराणसी में जन्म। यहीं बचपन और एम.ए. तक पढ़ाई। शहर के जीवन, अतीत, भूगोल और दिक्कतों पर एकाग्र लेखों और प्रतिक्रियाओं से 2004 में लिखने की शुरुआत। कविताओं के अलावा आलोचनात्मक लेखन। मशहूर अमेरिकी कवि-अनुवादक-पत्रकार इलियट वाइनबर्गर की किताब का हिंदी अनुवाद 'मैंने इराक के बारे में जो सुना’ शीर्षक से 'पहल पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित। इसके अलावा विश्व साहित्य से नॉम चॉम्स्की, हॉवर्ड जिन, रेमण्ड विलियम्स और वॉल्टर बेंजामिन के कुछ निबंधों के हिंदी में अनुवाद। बनारस की चित्रकूट रामलीला का विधिवत अध्ययन। सुप्रसिद्ध कला इतिहासकार राय कृष्णदास के जीवन और अवदान पर उनके पुत्र प्रसिद्ध कलाविद् राय आनन्दकृष्ण के साथ बातचीत पर आधारित एक जीवनीपरक पुस्तक में व्यस्त। नाट्यशास्त्र और संगीत पर केंद्रित कुछ निबंध।
2008 में कविताओं के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार।
2009 में कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार।
2013 में रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप।
रंगकर्म में विशेष दिलचस्पी। 2011 में मोहन राकेश लिखित संस्कृत कवि कालिदास की जीवन-ट्रैजिडी पर आधारित नाटक 'आषाड़ का एक दिन’ का समसामयिक अभिप्रायों में मंचन। फिलहाल जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी’ की बैले के विन्यास में प्रस्तुति तैयार की है।
संपर्क : सी-27/111, बी-4, जगतगंज, वाराणसी-221002 (उ.प्र.)
ई-मेल : vyomeshshukla@gmail.com

