आलोचना
अरुण प्रकाश अभिधा-परंपरा के कथाकार हैं। स्थितियों और पात्रों को अप्रत्याशित झटके नहीं देते। कहन पर अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय जानकारी नहीं गाँजते। वे पहले से परिचित पात्रों और स्थितियों में अपरिचय का अंश प्रकट करते हैं। अपरिचय का परिचय नहीं देते।...
| मूल्य : 350.00 HB |
कहानी के फलक : अरुण प्रकाश (Kahani Ke Falak : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश के आलोचकीय-सैद्धांतिक ढाँचे में पाठक नाम का वह विस्मृत प्राणी पूरे महत्त्व के साथ प्रतिष्ठित है जिसे आज के कहानीकार और आलोचक किसी गिनती में नहीं रखते। वे संवाद की बात करें चाहे दृश्य की, ब्योरों की बात करें चाहे कथाभाषा की, हर जगह पाठक की चिंता उनके सूत्रीकरणों की तह में होती है। उनके कहानी-संबंधी चिंतन की, और इसीलिए इस पूरी पुस्तक की, केंद्रीय चिंता इन पंक्तियों में निहित है : ''कहानीकार प्रस्तुति के स्तर पर पाठक के थोड़ा भी अनुकूल होने में अपनी कला की बेइज़्ज़ती समझता है। लिहाज़ा, वह तानाशाह की तरह कहानियाँ लिख-लिखकर पाठकों के सामने फेंकता जाता है। पाठक पढ़ें, न पढ़ें, ग्रहण करें, न करें। अनुकूल संपादक, आलोचक हैं, इतना ही कहानीकार के लिए काफी है।''
गरज़ कि कहानी पाठक के लिए लिखी जाती है, यह अरुण प्रकाश की आलोचना का 'प्रेमाइस' है। इसी से उनकी सैद्धांतिक समझ के अधिकांश सूत्र निकलते हैं।... पर यह मान लेना गलत होगा कि उनकी आलोचना इसी पर खत्म भी हो जाती है। इन लेखों में ऐसा बहुत कुछ है जो इसके बाहर या इससे आगे भी जाता है। मसलन, जब वे कहते हैं कि कथा-भाषा के संबंध में सोच रचनाकार-केंद्रित न होकर रचना-केंद्रित होना चाहिए, यानी रचनाकार के व्यक्तित्व की नहीं, कहानी के व्यक्तित्व की बात होनी चाहिए, तो वह सिर्फ पाठक का मामला नहीं रह जाता। इसी तरह अनुभव की राजनीति की चर्चा करते हुए वे जिन जटिल सैद्धांतिक प्रपत्तियों से उलझते हैं, उन्हें सिर्फ पाठक की केंद्रीय अवस्थिति के मुहावरे से नहीं समझा जा सकता। ऐसे बहुत सारे सवालों और समस्याओं से उनकी आलोचना दो-चार होती है और एक निथरा हुआ समाधान लेकर हमारे सामने आती है।
अब समय आ गया है कि आलोचक अरुण प्रकाश पर गंभीरता से बात हो और उनकी आलोचना से उभरने वाले सैद्धांतिक ढाँचे को व्यवस्थित तरीके से चिह्नित किया जाए। संजीव कुमार (भूमिका से)
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| मूल्य : 300/- (HB) |
उपन्यास के रंग : अरुण प्रकाश
(Upanyas ke Rang : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश ने अपनी किताब 'गद्य की पहचान’ में उपन्यास को एक रूपबंध कहा था जिसमें कई विधाओं की आवाजाही हो सकती है। प्रस्तुत किताब 'उपन्यास के रंग' में अरुण प्रकाश उपन्यास के संभावित आयतन को नए सिरे से अन्वेषित करते हैं। उपन्यास में आ सकने वाली विधाओं और सामग्री की यह एक गंभीर जाँच-पड़ताल है जो पाठकों के साथ ही लेखकों को भी उद्वेलित करती है।
कथाकार अरुण प्रकाश $िफल्म की भाषा में सोचनेवाले रचनाकार थे अत: वे फार्म, भाषा, शिल्प के साथ ही आख्यान के सभी रूपों को गहराई से समझते थे। यह गुण उनकी आलोचना में मुख्य धातु की तरह विद्यमान है।
अरुण प्रकाश इस किताब से एक गंभीर आलोचक की अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं। उनकी यह किताब उपन्यास में आ रहे विधागत बदलाओं को समझने की एक भरोसेदार कुंजी है।
—लीलाधर मंडलोई
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| मूल्य 350.00 HB |
गद्य की पहचान : अरुण प्रकाश (Gadya Ki Pahchan : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश गद्य के जिन आधुनिक रूपबंधों को उठाते हैं, उनकी भारतीय परंपराओं का उल्लेख करने में संकोच नहीं करते। इनकी नई महत्ता का विश्लेषण करते हुए वे हिंदी और पश्चिम की कृतियों की विधागत विशेषता की बड़े ही सृजनात्मक ढंग से पड़ताल करते हैं। वे उस राजनीति में भी घुसते हैं, जिसमें कोई विधा पीछे छूट जाती है और कोई विधा केंद्रीय स्थान बना लेती है। समय-समय पर हिंदी में यह विवाद चला भी है कि कब कविता केंद्रीय विधा है, कब कहानी और कब उपन्यास। अरुण प्रकाश सोच-समझकर ही यात्रा-आख्यान को एक $खास संदर्भ में 'साम्राज्यवादी रूपबंध' कहते हैं। हालाँकि कोई भी साहित्यिक विधा अपने आप में अमानवीय नहीं होती, उसका इस्तेमाल भिन्न उद्देश्य से हो सकता है।
अरुण प्रकाश मेरे बड़े पुराने आत्मीय हैं। मुझे प्रसन्नता है कि प्रमुख रूप से कथाकार होकर भी उन्होंने 'फार्म' और 'जेनर' जैसे गूढ़ विषय पर लिखने की योजना बनाई। मुझे थोड़ा विस्मय भी हुआ। इस क्षेत्र में और ऐसे कई जटिल क्षेत्रों में हिंदी में इतना कम काम हुआ है कि इस पुस्तक की महत्ता स्वत: बढ़ जाती है। उन्होंने खराब स्वास्थ्य में भी जो लिखा है, वह आगे भी बचे काम का रास्ता खोलनेवाला है। सतही कथन या स्पष्टवादिता के विकल्प के रूप में साहित्यिक विधाओं का एक महत्त्व है। इनमें इधर जो कायांतर आ रहा है, उसको समझने के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी (भूमिका से)
— डॉ. शंभूनाथ
कहानी-संग्रह
भैया एक्सप्रेस - अरुण प्रकाश
(Bhaiya Express : Arun Prakash)
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| मूल्य : 110/- (PB) 210/- (HB) |
उनकी कहानियों में तत्कालीनता की ऐतिहासिकता की भूमिका है—यह भी प्रेमचंद, परसाई, शेखर जोशी और ज्ञानरंजन, स्वयं प्रकाश की परंपरा में है। कहानियों के पात्र और उनकी स्थितियाँ ऐसी हैं, जो अभी निर्णीत नहीं हैं, वे कुछ होने और न होने की प्रक्रिया में हैं, उनपर विराम-चिह्न नहीं लगा है।
—विश्वनाथ त्रिपाठी
बिहार के मज़दूरों की इस दुर्दशा के प्रति अरुण प्रकाश जितने संवेदनशील थे उतनी संवेदनशीलता मैंने बहुत कम लोगों में पाई है। उनकी इसी संवेदनशीलता का प्रमाण और परिणाम है उनकी मशहूर कहानी 'भैया एक्सप्रेस।’
—मैनेजर पाण्डेय
वे 'कफन 1984’ और 'भैया एक्सप्रेस’ जैसी कहानियों के माध्यम से बिहार के मज़दूरों के निरंतर पलायन और सामंती जकड़बंदी में उसके शोषण को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित कर रहे थे। इस शोषण से मुक्ति के लिए मज़दूरों के भीतर उठने वाले संघर्ष हिंदी आलोचकों को आलोचना के नए औज़ार गढऩे को विवश कर रहे थे।
—सुरेन्द्र स्निग्ध
'जल-प्रांतर’ कहानी के रूप में रिपोर्तार्ज है। बिहार की बाढ़ का शायद ही कहीं ऐसा विवरण मिलता हो जो यथार्थ के इतना करीब हो।
—नामवर सिंह
'जल-प्रांतर’ का प्रतिपाद्य बाढ़ की विभीषिका, उस राहत कार्य में भ्रष्टाचार, सामान्य जन की विपत्ति और उनको वंचित करने के दृश्य—प्रकृति के कोप के अपार नेपथ्यों में। और इसी में घोर कर्मकाण्डी रुढिग़्रस्त अंधविश्वासी पंडित परिवार और पाहुन, और उनकी वृद्धा पत्नी का प्रकरण है, जो बाढ़-लीला का छोटा-सा किनारे पड़ा हुआ अंश है। किंतु वृद्धा पत्नी और उनके पति पाहुन के संबंधों-स्थितियों से जूझते हुए संबंधों को इतनी सहजता, संयम, मितकथन से संकेतित किया गया गया है कि इस विशदकथा की मार्मिकता उस वृद्ध दम्पती केन्द्रित-पर्यवसित हो जाती है।
—विश्वनाथ त्रिपाठी
'जल-प्रांतर’ में जमा छह कहानियों में से 'जल-प्रांतर’ मुझे प्रत्येक दृष्टि से अद्वितीय लगी। एक ज़बरदस्त कहानी। अरुण ने इसमें अपना सब-कुछ उलीच कर रख दिया। मनुष्य, कल और व्यवस्था का एक यथार्थवादी रूपक। कहानी का नायक पंडित वासुदेव का किरदार एक साथ कई द्वंद्वों का प्रतिनिधित्व करता है। 'जल-प्रांतर’ सिर्फ बाढ़ से घिरे लोगों और इलाके की कहानी नहीं है। मैं इसे राष्ट्र के संधिकाल के अंतर्विरोधों के रूपक के तौर पर लेता हूँ।
—रामशरण जोशी
'जल-प्रांतर’ का स्थापत्य विराट है। इसके स्थापत्य में युगों से चली आ रही आस्थाओं के भग्नावशेष के साथ-साथ गँवई समाज के विविधवर्णी क्रियात्मक रूप और प्रकृति की महाकाव्यात्मकता शामिल हैं। कहानी का पाश्र्व रचते हुए अरुण प्रकाश कुछ भी आक्षेपित किए बिना सहज भाव से वर्णन करते हैं और जीवन का मर्म उकेरते चलते हैं।
अरुण प्रकाश की कहानियाँ मानसधर्मी कहानियाँ नहीं हैं। वह कालधर्मी कहानीकार हैं। वह अपने उन जीवनानुभवों को कहानी के कथ्य में रूपांतरित करते हैं जिन्हें वह हमारे समय, समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों से टकराकर अर्जित करते हैं।
—हृषीकेश सुलभ
अरुण प्रकाश
जन्म : 22 फरवरी को 1948 में बेगूसराय (बिहार) में।
शिक्षा : स्नातक प्रबंध विज्ञान और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतियाँ :
कहानी संग्रह : भैया एक्सप्रेस, जलप्रांतर, मँझधार किनारे, लाखों के बोल सहे, विषम राग
उपन्यास : कोंपल कथा
कविता संकलन : रक्त के बारे में
आलोचना : गद्य की पहचान, उपन्यास के रंग, कहानी के फलक
अनुवाद : अंग्रेजी से हिंदी में विभिन्न विषयों की आठ पुस्तकों का अनुवाद।
अनुभव : अखबारों व पत्रिकाओं का संपादन। खासकर साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' का कई वर्षों तक संपादन। कई धारावाहिकों, वृत्त चित्रों तथा टेली-फिल्मों से संबद्ध रहे, कई स्तंभों का लेखन। प्राय: एक दशक से कथा-समीक्षा और आलोचना लेखन। अनेक राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों में सहभागिता।
सम्मान : साहित्यकार सम्मान, हिंदी अकादमी; दिल्ली, कृति पुरस्कार, हिंदी अकादमी; दिल्ली, रेणु पुरस्कार, बिहार शासन, दिनकर सम्मान, सुभाष चन्द्र बोस कथा-सम्मान, कृष्ण प्रताप स्मृति कथा पुरस्कार।
18 जून, 2012 को निधन।



