आलोचना
| मूल्य : 350.00 HB |
कहानी के फलक : अरुण प्रकाश (Kahani Ke Falak : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश के आलोचकीय-सैद्धांतिक ढाँचे में पाठक नाम का वह विस्मृत प्राणी पूरे महत्त्व के साथ प्रतिष्ठित है जिसे आज के कहानीकार और आलोचक किसी गिनती में नहीं रखते। वे संवाद की बात करें चाहे दृश्य की, ब्योरों की बात करें चाहे कथाभाषा की, हर जगह पाठक की चिंता उनके सूत्रीकरणों की तह में होती है। उनके कहानी-संबंधी चिंतन की, और इसीलिए इस पूरी पुस्तक की, केंद्रीय चिंता इन पंक्तियों में निहित है : ''कहानीकार प्रस्तुति के स्तर पर पाठक के थोड़ा भी अनुकूल होने में अपनी कला की बेइज़्ज़ती समझता है। लिहाज़ा, वह तानाशाह की तरह कहानियाँ लिख-लिखकर पाठकों के सामने फेंकता जाता है। पाठक पढ़ें, न पढ़ें, ग्रहण करें, न करें। अनुकूल संपादक, आलोचक हैं, इतना ही कहानीकार के लिए काफी है।''
गरज़ कि कहानी पाठक के लिए लिखी जाती है, यह अरुण प्रकाश की आलोचना का 'प्रेमाइस' है। इसी से उनकी सैद्धांतिक समझ के अधिकांश सूत्र निकलते हैं।... पर यह मान लेना गलत होगा कि उनकी आलोचना इसी पर खत्म भी हो जाती है। इन लेखों में ऐसा बहुत कुछ है जो इसके बाहर या इससे आगे भी जाता है। मसलन, जब वे कहते हैं कि कथा-भाषा के संबंध में सोच रचनाकार-केंद्रित न होकर रचना-केंद्रित होना चाहिए, यानी रचनाकार के व्यक्तित्व की नहीं, कहानी के व्यक्तित्व की बात होनी चाहिए, तो वह सिर्फ पाठक का मामला नहीं रह जाता। इसी तरह अनुभव की राजनीति की चर्चा करते हुए वे जिन जटिल सैद्धांतिक प्रपत्तियों से उलझते हैं, उन्हें सिर्फ पाठक की केंद्रीय अवस्थिति के मुहावरे से नहीं समझा जा सकता। ऐसे बहुत सारे सवालों और समस्याओं से उनकी आलोचना दो-चार होती है और एक निथरा हुआ समाधान लेकर हमारे सामने आती है।
अब समय आ गया है कि आलोचक अरुण प्रकाश पर गंभीरता से बात हो और उनकी आलोचना से उभरने वाले सैद्धांतिक ढाँचे को व्यवस्थित तरीके से चिह्नित किया जाए। संजीव कुमार (भूमिका से)
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| मूल्य : 300/- (HB) |
उपन्यास के रंग : अरुण प्रकाश
(Upanyas ke Rang : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश ने अपनी किताब 'गद्य की पहचान’ में उपन्यास को एक रूपबंध कहा था जिसमें कई विधाओं की आवाजाही हो सकती है। प्रस्तुत किताब 'उपन्यास के रंग' में अरुण प्रकाश उपन्यास के संभावित आयतन को नए सिरे से अन्वेषित करते हैं। उपन्यास में आ सकने वाली विधाओं और सामग्री की यह एक गंभीर जाँच-पड़ताल है जो पाठकों के साथ ही लेखकों को भी उद्वेलित करती है।
कथाकार अरुण प्रकाश $िफल्म की भाषा में सोचनेवाले रचनाकार थे अत: वे फार्म, भाषा, शिल्प के साथ ही आख्यान के सभी रूपों को गहराई से समझते थे। यह गुण उनकी आलोचना में मुख्य धातु की तरह विद्यमान है।
अरुण प्रकाश इस किताब से एक गंभीर आलोचक की अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं। उनकी यह किताब उपन्यास में आ रहे विधागत बदलाओं को समझने की एक भरोसेदार कुंजी है।
—लीलाधर मंडलोई
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| मूल्य 350.00 HB |
गद्य की पहचान : अरुण प्रकाश (Gadya Ki Pahchan : Arun Prakash)
अरुण प्रकाश गद्य के जिन आधुनिक रूपबंधों को उठाते हैं, उनकी भारतीय परंपराओं का उल्लेख करने में संकोच नहीं करते। इनकी नई महत्ता का विश्लेषण करते हुए वे हिंदी और पश्चिम की कृतियों की विधागत विशेषता की बड़े ही सृजनात्मक ढंग से पड़ताल करते हैं। वे उस राजनीति में भी घुसते हैं, जिसमें कोई विधा पीछे छूट जाती है और कोई विधा केंद्रीय स्थान बना लेती है। समय-समय पर हिंदी में यह विवाद चला भी है कि कब कविता केंद्रीय विधा है, कब कहानी और कब उपन्यास। अरुण प्रकाश सोच-समझकर ही यात्रा-आख्यान को एक $खास संदर्भ में 'साम्राज्यवादी रूपबंध' कहते हैं। हालाँकि कोई भी साहित्यिक विधा अपने आप में अमानवीय नहीं होती, उसका इस्तेमाल भिन्न उद्देश्य से हो सकता है।
अरुण प्रकाश मेरे बड़े पुराने आत्मीय हैं। मुझे प्रसन्नता है कि प्रमुख रूप से कथाकार होकर भी उन्होंने 'फार्म' और 'जेनर' जैसे गूढ़ विषय पर लिखने की योजना बनाई। मुझे थोड़ा विस्मय भी हुआ। इस क्षेत्र में और ऐसे कई जटिल क्षेत्रों में हिंदी में इतना कम काम हुआ है कि इस पुस्तक की महत्ता स्वत: बढ़ जाती है। उन्होंने खराब स्वास्थ्य में भी जो लिखा है, वह आगे भी बचे काम का रास्ता खोलनेवाला है। सतही कथन या स्पष्टवादिता के विकल्प के रूप में साहित्यिक विधाओं का एक महत्त्व है। इनमें इधर जो कायांतर आ रहा है, उसको समझने के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी (भूमिका से)
— डॉ. शंभूनाथ
कहानी-संग्रह
भैया एक्सप्रेस - अरुण प्रकाश
(Bhaiya Express : Arun Prakash)
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| मूल्य : 110/- (PB) 210/- (HB) |
उनकी कहानियों में तत्कालीनता की ऐतिहासिकता की भूमिका है—यह भी प्रेमचंद, परसाई, शेखर जोशी और ज्ञानरंजन, स्वयं प्रकाश की परंपरा में है। कहानियों के पात्र और उनकी स्थितियाँ ऐसी हैं, जो अभी निर्णीत नहीं हैं, वे कुछ होने और न होने की प्रक्रिया में हैं, उनपर विराम-चिह्ननहीं लगा है।
—विश्वनाथ त्रिपाठी
बिहार के मज़दूरों की इस दुर्दशा के प्रति अरुण प्रकाश जितने संवेदनशील थे उतनी संवेदनशीलता मैंने बहुत कम लोगों में पाई है। उनकी इसी संवेदनशीलता का प्रमाण और परिणाम है उनकी मशहूर कहानी 'भैया एक्सप्रेस।’
—मैनेजर पाण्डेय
वे 'कफन 1984’ और 'भैया एक्सप्रेस’ जैसी कहानियों के माध्यम से बिहार के मज़दूरों के निरंतर पलायन और सामंती जकड़बंदी में उसके शोषण को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित कर रहे थे। इस शोषण से मुक्ति के लिए मज़दूरों के भीतर उठने वाले संघर्ष हिंदी आलोचकों को आलोचना के नए औज़ार गढऩे को विवश कर रहे थे।
—सुरेन्द्र स्निग्ध
'जल-प्रांतर’ कहानी के रूप में रिपोर्तार्ज है। बिहार की बाढ़ का शायद ही कहीं ऐसा विवरण मिलता हो जो यथार्थ के इतना करीब हो।
—नामवर सिंह
'जल-प्रांतर’ का प्रतिपाद्य बाढ़ की विभीषिका, उस राहत कार्य में भ्रष्टाचार, सामान्य जन की विपत्ति और उनको वंचित करने के दृश्य—प्रकृति के कोप के अपार नेपथ्यों में। और इसी में घोर कर्मकाण्डी रुढिग़्रस्त अंधविश्वासी पंडित परिवार और पाहुन, और उनकी वृद्धा पत्नी का प्रकरण है, जो बाढ़-लीला का छोटा-सा किनारे पड़ा हुआ अंश है। किंतु वृद्धा पत्नी और उनके पति पाहुन के संबंधों-स्थितियों से जूझते हुए संबंधों को इतनी सहजता, संयम, मितकथन से संकेतित किया गया गया है कि इस विशदकथा की मार्मिकता उस वृद्ध दम्पती केन्द्रित-पर्यवसित हो जाती है।
—विश्वनाथ त्रिपाठी
'जल-प्रांतर’ में जमा छह कहानियों में से 'जल-प्रांतर’ मुझे प्रत्येक दृष्टि से अद्वितीय लगी। एक ज़बरदस्त कहानी। अरुण ने इसमें अपना सब-कुछ उलीच कर रख दिया। मनुष्य, कल और व्यवस्था का एक यथार्थवादी रूपक। कहानी का नायक पंडित वासुदेव का किरदार एक साथ कई द्वंद्वों का प्रतिनिधित्व करता है। 'जल-प्रांतर’ सिर्फ बाढ़ से घिरे लोगों और इलाके की कहानी नहीं है। मैं इसे राष्ट्र के संधिकाल के अंतर्विरोधों के रूपक के तौर पर लेता हूँ।
—रामशरण जोशी
'जल-प्रांतर’ का स्थापत्य विराट है। इसके स्थापत्य में युगों से चली आ रही आस्थाओं के भग्नावशेष के साथ-साथ गँवई समाज के विविधवर्णी क्रियात्मक रूप और प्रकृति की महाकाव्यात्मकता शामिल हैं। कहानी का पाश्र्व रचते हुए अरुण प्रकाश कुछ भी आक्षेपित किए बिना सहज भाव से वर्णन करते हैं और जीवन का मर्म उकेरते चलते हैं।
अरुण प्रकाश की कहानियाँ मानसधर्मी कहानियाँ नहीं हैं। वह कालधर्मी कहानीकार हैं। वह अपने उन जीवनानुभवों को कहानी के कथ्य में रूपांतरित करते हैं जिन्हें वह हमारे समय, समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों से टकराकर अर्जित करते हैं।
—हृषीकेश सुलभ
अरुण प्रकाश
जन्म : 22 फरवरी को 1948 में बेगूसराय (बिहार) में।
शिक्षा : स्नातक प्रबंध विज्ञान और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
प्रकाशित कृतियाँ :
कहानी संग्रह : भैया एक्सप्रेस, जलप्रांतर, मँझधार किनारे, लाखों के बोल सहे, विषम राग
उपन्यास : कोंपल कथा
कविता संकलन : रक्त के बारे में
आलोचना : गद्य की पहचान, उपन्यास के रंग, कहानी के फलक
अनुवाद : अंग्रेजी से हिंदी में विभिन्न विषयों की आठ पुस्तकों का अनुवाद।
अनुभव : अखबारों व पत्रिकाओं का संपादन। खासकर साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' का कई वर्षों तक संपादन। कई धारावाहिकों, वृत्त चित्रों तथा टेली-फिल्मों से संबद्ध रहे, कई स्तंभों का लेखन। प्राय: एक दशक से कथा-समीक्षा और आलोचना लेखन। अनेक राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों में सहभागिता।
सम्मान : साहित्यकार सम्मान, हिंदी अकादमी; दिल्ली, कृति पुरस्कार, हिंदी अकादमी; दिल्ली, रेणु पुरस्कार, बिहार शासन, दिनकर सम्मान, सुभाष चन्द्र बोस कथा-सम्मान, कृष्ण प्रताप स्मृति कथा पुरस्कार।
18 जून, 2012 को निधन।
उड़ानों के सारांश : वंदना शुक्ल
(Udanon Ke Saransh : Vandana Shukla)
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| मूल्य : 250/- |
'उड़ानों के सारांश’ कथा लेखिका वंदना शुक्ल का पहला संग्रह है। इस पुस्तक में संग्रहित कहानियों में लेखिका ने आज के व्यस्त और आधुनिक जीवन में मनुष्य की छिजती संवेदनाओं, मनुष्यता के लिए घटती गुंजाइशों और इंसानी छटपटाहट को बहुत ही महीन बुनावट में आत्मीयता पूर्वक आरेखित करने का अनूठा और विनम्र प्रयास किया है। गज़ब की कथात्मकता तो है ही, बिना किसी तरह के दावे और नारेबाजी के एक स्पष्ट सरोकार भी है। इनकी कहन शैली और भाषा में निजता इन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य युवाओं से बिलगाती और विशिष्ट भी बनाती है।
यह एक स्त्री की कलम से लिखी गई कहानी होने के कारण प्रचलित अर्थ में स्त्री-विमर्श की कहानी नहीं है। व्यापक स्त्री-समाज के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण ही नहीं, सामाजिक समरसता, संबंधों में आत्मीयता और जीवन के जद्दोजहद में संघर्ष की महत्ता को भी यहाँ पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। जलकुंभियाँ, मिनाल पार्क और तीन बूढ़े, अपने-अपने तह$खाने, मुआवज़ा, आखेट, अहसास आदि इनकी अरसे तक याद रहने वाली कहानियाँ हैं। निश्चय ही हिंदी कहानी के पाठकों के पाठ-अनुभव को समृद्ध करने के
साथ-साथ उनमें कुछ नया जोडऩे में सक्षम होंगी इस संग्रह की कहानियाँ।
यह एक स्त्री की कलम से लिखी गई कहानी होने के कारण प्रचलित अर्थ में स्त्री-विमर्श की कहानी नहीं है। व्यापक स्त्री-समाज के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण ही नहीं, सामाजिक समरसता, संबंधों में आत्मीयता और जीवन के जद्दोजहद में संघर्ष की महत्ता को भी यहाँ पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। जलकुंभियाँ, मिनाल पार्क और तीन बूढ़े, अपने-अपने तह$खाने, मुआवज़ा, आखेट, अहसास आदि इनकी अरसे तक याद रहने वाली कहानियाँ हैं। निश्चय ही हिंदी कहानी के पाठकों के पाठ-अनुभव को समृद्ध करने के
साथ-साथ उनमें कुछ नया जोडऩे में सक्षम होंगी इस संग्रह की कहानियाँ।
वंदना शुक्ल
शिक्षा : बी.एस-सी. एम.एम. (हिंदी साहित्य), एम.ए. (संगीत), बी.एड., शोध कार्य।
महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। कादम्बिनी कहानी लेखन प्रतियोगिता से पुरस्कृत। प्रेमचंद की तीन कहानियों का नाट्य रूपांतरण। दो का मंचन (निदेशन), आकाशवाणी सुगम संगीत कलाकार, सुप्रसिद्ध निर्देशकों द्वारा निर्देशित नौ पूर्णकालिक व दो नुक्कड़ नाटकों में अभिनय एवं संगीत संयोजन। दूरदर्शन तथा अनेक शहरों में नाट्य प्रदर्शन। 'उड़ानों के सारांश’ पहला कहानी-संग्रह।
संप्रति, शिक्षिका।
भोपाल मध्यप्रदेश की निवासी एवं पिलानी राजस्थान में पदस्त।
टुकड़े-टुकड़े धूप : मनीष वैद्य
(Tukde-Tukde Dhup : Manish Vaidya)
मनीष वैद्य की कहानियाँ मानवीय निरीहता और संघर्ष के संकेत के ऐसे मार्मिक आख्यान हैं जो प्रतिरोध में लोक भाषा की मदद से उसकी अन्त: दिप्ती में प्रकट होते है। आज एक ऐसे समय में जब संस्कृति विचार और संवेदना को घेरकर एक बिंदु विशेष पर केन्द्रित किया जा रहा है। बाज़ार ने सूचना और संचार माध्यमों की मदद से एक भिन्न विचार का घटाटोप तैयार कर दिया है। पिछले दो दशकों से हिंदी कहानी बाज़ार की इस बर्बरता को अनावृत करने की कोशिश में लगी है। मनीष की कहानियाँ भी इसी की एक कड़ी है। ये कहानियाँ प्रत्यक्षत: अपने पाठ में बाज़ार से अपरिचय की तरह प्रकट होती हैं। लेकिन अपने समय और समाज के यथार्थ से उसके बर्ताव में बाज़ार से उत्पन्न विभीषिका के मासूम और सांकेतिक चिह्नï उद्घाटित होते हैं।
इन रचनाओं में कहानी परम्परा के प्रति एक ऐसा आदर है जो यथार्थ के प्रति उस आसक्ति से पैदा हुआ है जहां संवेदना को कहानी में एक ऐसी जगह मिलती है जो उसकी पठनीयता को बचाकर अपने अर्थप्राण को प्रकट करे। मनीष प्राय: इसके लिए स्मृतियों के बखान का सहारा लेते हैं। स्मृतियाँ जो अवसाद से शुरू होकर हर्ष पर ठहरती हैं या प्राय: हर्ष या उत्साह से शुरू होकर एक ऐसे अवसाद पर समाप्त होती हैं जहाँ छोटी-छोटी चीजों के अभाव जीवन की इच्छाओं और दारुण दुखों का अनुवाद करते हैं। स्मृतियों और अवसाद के लिए मनीष फंतासी की तरफ न जाते हुए एक किस्म की मूर्त स्थानीयता को भाषा की मदद से जगह देते हैं। यथार्थ के ब्योरों की तकलीफ के बावजूद वह पाठकीय संवेदनों के करीब होते जाते हैं।
मनीष वैद्य के साथ एक बात अच्छी जुड़ी है कि वह स्मृति और अनुभवों की बिखरी अपनी छोटी-सी दुनिया से कथासूत्र जुटाते हैं। संभवत इसी कारण ये कहानियाँ अपने मार्मिक आवेग में संवेदना के धरातल के ज्यादा करीब लगती हैं। घर-परिवार और समाज के छोटे छोटे हिस्सों में फैली ये कहानियाँ अंतत: लेखक की उस पक्षधरता को ही ग्रहण करती हैं जो समाज में तेजी से जगह बना रही है अमानवीयता के िखलाफ है। मनीष के इस कथासंसार में उनके अनुभव संसार से आए घर-परिवार, बच्चे, छोटे बड़े सुख दु:ख, इच्छा और जीवन उष्मा से भरा स्वप्न संसार है जो आश्वस्त भी करता है और उम्मीद भी जगाता है।
--भालचंद्र जोशी
आते रहना : दिनेश कर्नाटक
(Aate Rahna : Dinesh Karnataka)
नई पीढ़ी की कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे सब से ज़्यादा आश्वस्ति परिवर्तनमूलक चेतना से होती है। दिनेश कर्नाटक की 'झाडिय़ाँ’ एक ऐसे कुलीन वर्ग के नौजवान की कहानी है जो अंतत: ज़मीन पर उतरता है।...यह एक अच्छी, सार्थक कहानी है।
रवीन्द्र वर्मा
दिनेश कर्नाटक की कहानी 'सफर आसान नहीं है मगर...(मैं और क्या चाहती थी।) प्रभावित करती है। दिनेशजी लगातार बहुत सादगी और शिद्दत से सशक्त कहानियाँ लिख रहे हैं।
जयनंदन
'अंतराल के बाद’...आज सुबह-सुबह...सूर्योदय के पहले पढ़कर अद्ïभुत लालिमा से नहा गया हँ! बेचैनी में आपको कॉल करना चाहा लेकिन आपका मोबाइल बंद...एकदम कहानी के अंत में छायी उद्वेलक चुप्पी की तरह! बहरहाल इस यादगार कहानी के लिए अनंत, अंतरंग, अक्षय बधाई!
श्याम बिहारी श्यामल
आपकी कहानी पढ़ी 'अंधेरे के....’ (मैं और क्या चाहती थी)। पढ़कर देर तक उस दुनिया में डूबी रही। लगा यह तो घर-घर की कहानी है। आपने एक डेंजमतचपमबम (मास्टरपीस) की रचना की है।
चमेली जुगरान
दिनेश कर्नाटक
जन्म : 13 जुलाई 1972, रानीबाग (नैनीताल) शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य) बी.एड. रचनाएँ : पहली कहानी 'एक छोटी सी यात्रा’ 1991 में 'उत्तर प्रदेश’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। एक कहानी-संग्रह 'काली कुमाऊँ का शेरदा तथा अन्य कहानियाँ’ और एक उपन्यास 'फिर वही सवाल’ प्रकाशित। 'दक्षिण भारत में सोलह दिन’ यात्रा संस्मरण तथा 'कहो कुछ, करो कुछ’ आलेख-संग्रह प्रकाशकाधीन। हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। पत्र-पत्रिकाओं में आलेख, संस्मरण, अनुवाद तथा समीक्षा आदि निरंतर प्रकाशित।
स्ंापादन : विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखंड सरकार की कक्षा 4, 5, 7 तथा 8 की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों 'हंसी-खुशी’ तथा 'बुरांश’ के लेखन तथा संपादन में योगदान। कक्षा-आठ की किताब में अंग्रेजी से अनूदित कहानी 'अंतिम पाठ’ संकलित। शिक्षा के सवालों पर केंद्रित छमाही पत्रिका 'शैक्षिक दखल’ के संपादन तथा प्रकाशन में भागीदारी।
पुरस्कार तथा अन्य : प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान, 2010 से सम्मानित। उपन्यास 'फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में प्रकाशनार्थ पुरस्कृत।
संप्रति, राजकीय इंटर कालेज, कालाढंूगी (नैनीताल) में अध्यापन।
संपर्क : ग्राम व पो.आ.-रानीबाग
जि़ला-नैनीताल-263126 (उत्तराखंड) उपन्यास
अधूरे सूर्यों के सत्य(Adhure Suryon Ke Satya : Prakash Kant)
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| मूल्य : 160/- (PB) 300/- (HB) |
'अधूरे सूर्यों के सत्य’ वीर नायकों की जयगाथा नहीं, सामान्य-कमज़ोर इन्सान के क्षण-प्रतिक्षण के संघर्षों और उसके पराजय को रेखांकित करने का ईमानदार लेखकीय प्रयास है। वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कांत ने इस उपन्यास में जाति-धर्म, ऊँच-नीच के खाँचे में बँटे हमारे समाज में व्याप्त संकीर्णता और वीभत्सता के बरक्स मानवीय उच्चतर मूल्यों के छोटे-छोटे जुगनुओं को रखकर इतिहास से वर्तमान तक की सच्चाई हमारे सामने रख दी है। बेहद पठनीय इस उपन्यास में गांधीवाद की असफलता को तो समझा ही जा सकता है, नए बाज़ारवादी दौर के अराजक माहौल बनने की प्रक्रिया को भी जाना जा सकता है।
मालवा की माटी की खुशबू से लबरेज इस उपन्यास की मूल चिंता नई नहीं है। हाँ, इसका पाठ अनुभव ताज़गीपन के साथ-साथ स्मृति में टिके रहने वाला है।
छोटे-छोटे वाक्यों और चाक्षुष भाषा वाले इस उपन्यास को पढ़ते समय चलचित्रों की भाँति सब कुछ दृश्य-जैसे कर देने की लेखकीय क्षमता कमाल की है। किले, दुर्ग, सीढ़ी, तालाब, सूर्यास्त या आधी रात, सड़क, बाज़ार, मुहल्ले सब कुछ प्रकृति के साथ जीवंत हो उठते हैं। लेखक के साथ पाठक सैर कर रहा हो जैसे।...और सबसे महत्त्वपूर्ण पंक्ति 'आधा खून हिंदू, आधा मुसलमान!’ पाठक के मन-मस्तिष्क में अंत-अंत तक होंट करती रहती है।
प्रकाश कान्त
वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कान्त का जन्म 26 मई, 1948 को सेंधवा, पश्चिम निमाड़ में हुआ।
शिक्षा, एम.ए. (हिंदी), रांगेय राघव के उपन्यासों पर पीएच.डी.।
कृतियाँ : 'शहर की आखिरी चिडि़या', 'टोकनी भर दुनिया', कहानी-संग्रह और 'अब और नहीं', 'मक़्तल', 'अधूरे सूर्यों के सत्य' उपन्यासों के अलावा कार्ल मार्क्स के जीवन और विचारों पर एक पुस्तक। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में सवा सौ से अधिक कहानियॉं प्रकाशित।
बत्तीस वर्ष तक ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापन के बाद फिलहाल स्वतंत्र-लेखन।
संपर्क : 155, एल.आई.जी., मुखर्जी नगर, देवास- 455001 (म.प्र.)
कविता-संग्रह
हर कोशिश है एक बगावत : राजेन्द्र कुमार
(Har Koshish Hai Ek Baghawat : Rajendra Kumar)
किसी कवि को सर्जना का तोष क्या सिर्फ इतने भर से मिल सकता है कि उसने अपने अनुभवों को, शब्दों की एक मनचाही व्यवस्था देने में सफलता पा ली है? व्यवस्थाएँ जो भी हैं, आज तो मानो सबकी एक ही जि़द है—समाज को 'गति की ऐसी जड़ता’ के हवाले कर दिया जाए कि वह गति के साथ अपने समायोजन के सुख का ही अभ्यस्त बनता जाए। परिवर्तन की न कोई आकांक्षा उसमें जागे, न बेचैनी। 'कोशिश’ शब्द अगर अपना वास्तविक अर्थ पाने को कहीं सिर उठाता दिखे तो शब्दकोशों में, उसे घेरने वाले पर्यायवाचियों की दीवारें कुछ और ऊँची कर दी जाएँ। 'अभ्यस्तता’ या 'आदत’ जैसे शब्दों को खुली छूट हो कि वे कोशों से उठें और हमारे सामाजिक जीवन की घेराबंदी करने में अपनी अर्थवानता कुछ और उजागर करें। इस संग्रह की कविताएँ, ऐसे 'कुछ भी’ की 'अभ्यस्तता’ या 'आदत’ के प्रतिपक्ष के रूप में 'कोशिश’ को परिभाषित करती हैं। 'कोशिश— हाँ, कोशिश ही तो कर सकता हूँ.../हर सार्थक शुरुआत/ प्रकृति से ही बागी होती आई है...!’ इस 'कोशिश’ में ही वह आईना द्रोह कर सकेगा, जिसमें आज का 'जनतांत्रिक’ जनता को उसके झूठे अक्स दिखाता रहता है। इस 'कोशिश’ में, कविता का सवाल सिर्फ 'कला का सवाल’ नहीं रह जाता, 'रोटी का सवाल’ भी बन आता है और साथ ही कश्मीर, अयोध्या, नंदिग्राम, सिंगूर, दंतेवाड़ा आदि क्षेत्रों में चल रहे संघर्षों का सवाल भी। इस 'कोशिश’ में ही हमें एक तरफ अपने प्राणोत्सर्गी इतिहास-पुरुषों की यह आवाज़ सुनाई पड़ती है—'हमारा लहू सिर्फ इतिहास के पन्नों पर/सूख चुका लहू नहीं है...’ और दूसरी तरफ बुश और ओसामा जैसों के प्रति इस चुनौती भरे प्रश्न की टंकार भी—'तुम कितने ताकतवर हो.../लेकिन कितने कमज़ोर!’ इसी कोशिश में, 'छन्नन’ और 'मनसब मियाँ’ जैसे साधारण जन, जो कवि की स्मृति में हैं, सजीव हो उठते हैं और 'विनायक सेन’ जैसा जुझारू व्यक्तित्व भी अपनी वर्तमानता में हमारा अभिन्न हो उठता है। और इस 'कोशिश’ में, सहभागिता की एक सुदीर्घ रचना-परंपरा को भी कवि भूलता नहीं, जो निराला-नागार्जुन-अज्ञेय-शमशेर-केदार से होती हुई, निरंतर गतिमान है।
राजेन्द्र कुमार
प्रमुख कृतियाँ : 'ऋण गुणा ऋण’ (कविता-संग्रह) उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा 1978 में पुरस्कृत। 'अनंतर तथा अन्य कहानियाँ’ (कहानी-संग्रह), 'प्रतिबद्धता के बावजूद’ (आलोचनात्मक लेखों का संग्रह), 'इलाचंद्र जोशी’ (साहित्य अकादेमी के लिए मोनोग्राफ), 'शब्द-घड़ी में समय’ (निबंध-संग्रह)।
कुछ कहानियों का पंजाबी, बांग्ला, मराठी, तमिल और अंग्रेज़ी में अनुवाद।
संपादन : 'साही के बहाने समकालीन रचनाशीलता पर एक बहस’, 'आलोचना का विवेक’ (देवीशंकर अवस्थी पर एकाग्र), 'अपन बनाम आतंक’, 'स्वाधीनता की अवधारणा और निराला’, 'प्रेमचंद की कहानियाँ : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य’, 'मुक्तिबोध और 'अंधेरे’ में’।
इलाहाबाद के 'अभिप्राय’ (साहित्यिक पत्रिका) का 1981 से संपादन। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की पत्रिका 'बहुवचन’ का भी 2009-10 में संपादन।
सम्पर्क : 12बी/1, बंद रोड, एलनगंज
इलाहाबाद-211002 (उ.प्र.)ताकि वसंत में खिल सकें फूल : कपिलेश भोज
(Taki Vasan Mein Khil Saken Phool : Kapilesh Bhoj)
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| मूल्य : 230.00 |
कपिलेश भोज हिंदी में जन-कवियों की उस धारा के कवि हैं, जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि नागार्जुन हुए हैं। धारा एक है लेकिन इसके हर कवि का अपना-अपना व्यक्तित्व है। 2010 में कपिलेश भोज का पहला कविता-संग्रह आया था- 'यह जो वक्त है’। उसमें पिछले दो दशकों के उस दौर की कविताएँ थीं, जब कवि खुद जन-संघर्षों के बीच था। उसने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी। अब वह नयी युवा पीढ़ी को संघर्ष की राह पर चलने के लिए प्रेरित कर रहा है। नए संग्रह में कवि उस माली की भूमिका अदा कर रहा है जो ब$र्फ की मार खाए पौधों के आस-पास उग आये झाड़-झंखाड़ को साफ करता है ताकि वसंत के आने पर उनमें फूल खिल सकें।
कपिलेश अपनी जि़ंदगी के उस मुकाम पर पहुँच रहे हैं जहाँ से इनसान मुड़ कर अपनी जि़ंदगी पर नज़र डालता है, गुज़रे हुए रास्तों को और अपने सहयात्रियों को याद करता है। इस संग्रह की कई कविताएँ अतीत की स्मृतियों से जुड़ी हुई हैं—वे जगहें जहाँ बचपन और लड़कपन बीता, जहाँ लंबी नौकरी की, वे गुरुजन और मित्र जिनके साहचर्य में जीवन के आदर्श पाए, संघर्षों का संकल्प लिया। ये स्मृतियाँ माँ, बहन और खो गए बेटे से भी जुड़ी हुई हैं। व्यक्ति का जीवन विभिन्न संबंधों से जुड़ कर ही अपना स्वरूप और अर्थ ग्रहण करता है। इन सब के प्रति कवि कृतज्ञता का अनुभव करता है। लेकिन वह अपने वर्तमान यथार्थ से भी इतना ही जुड़ा हुआ है। अतीत की स्मृतियाँ उसकी दृष्टि को धुँधला नहीं करती। कवि आज भी अपने चारों ओर की सामाजिक सच्चाइयों, राजनीतिक प्रपंचों और सांस्कृतिक उथल-पुथल को पैनी निगाहों से परखता है। उसकी राजनीतिक चेतना व्यवस्था से अब भी किसी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं। इसलिए वह नयी पीढ़ी को लगातार प्रेरित और प्रबुद्ध करना चाहता है ताकि इस व्यवस्था के $िखला$फ लड़ाई जारी रह सके।
उत्तराखंड का पहाड़ी जीवन, उसकी संस्कृति, भाषा, शब्द , अमल-धवल शिखर, नदियाँ और पेड़-पौधे- जैसे कपिलेश भोज के पहले कविता-संग्रह में थे, वैसे ही नये संग्रह में भी सजीव हो आए हैं।
—वीर भारत तलवार
कपिलेश भोज
जन्म : 15 फरवरी, 1957 को उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जनपद के लखनाड़ी गाँव में।
शिक्षा : कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल से हिंदी साहित्य में एम.ए., पी-एच. डी.।
प्रकाशित कृतियाँ : 'यह जो व$क्त है’ (कविता-संग्रह), 'लोक का चितेरा : ब्रजेन्द्र लाल शाह’ (जीवनी)।
कुछ समय तक 'वर्तमान साहित्य’ और 'कारवाँ’ का संपादन किया।
हिंदी के अलावा मातृभाषा कुमाउँनी में भी कहानियाँ, कविताएँ एवं आलोचनात्मक लेखन।
संप्रति, अध्यापन से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।
'अक्षरों के पार जाकर’ सुधांशु उपाध्याय का चौथा नवगीत (कविता) संग्रह है। इसके पहले इनका तीसरा संग्रह 2012 में 'आने वाले कल पर’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है। अपने पिछले तीनों संग्रहों की तरह यहाँ भी सुधांशु ने अपनी सोच, शिल्प, कहन-कथन और संवेदनाओं के साथ विचारों को नई ज़मीन दी है। जो कभी गीत या नवगीत में प्राय: संभव नहीं रहा था, यह संग्रह उन सारी असंभावनाओं को संभव बनाता है। सुधांशु अपनी कविताओं में ज़मीन तोडऩे वाले और नई ज़मीन तलाशने और तैयार करने वाले कवि हैं। उनके सार्थक और कभी-कभी अचंभे में डालने वाले प्रयोग उन्हें आम कवियों-नवगीतकारों से बिल्कुल अलग खड़ा करते हैं। वह नवगीत-कविता को समय से जोड़कर चलते हैं। मामूली बातों में कविता का उत्स और उद्देश्य पा लेने वाले वे अपने तरह के विरल कवि हैं। उनकी दृष्टि अविचल और स्पष्ट है। थोड़ी अतिशयोक्ति लग सकती है किन्तु सुधांशु ने गीत को नॉस्टेल्जिया से निकाल कर युग-समय के सत्य के साथ जोड़ा है और गीत/नवगीत में विचार नहीं समा सकते, इस मिथक या प्रपंच को भी तोड़ा है। उनका अंदाजे बयाँ यानी उनका अपना खास शिल्प उन्हें नवगीत-कवियों से ही नहीं, गद्य कवियों से भी अलग करता है। भविष्य में कविता का स्वरूप क्या होगा, कहना मुश्किल है किंतु सुधांशु उपाध्याय की नवगीत-कविताएँ शायद भविष्य की पूरी हिंदी कविता की ओर संकेत करती हैं। जीवन की लय बदल रही है। कविता की लय ठहरी कैसे रह सकती है? तमाम अवरोधों और संहिताओं को तोड़ कर रचना को नई गति और नव्यार्थ देना ही सुधांशु की कविता है। उनके नवगीत हमारे साथ चलते हैं, समय के साथ चलते हैं और कहीं समय से आगे भी संकेतों में गहरे अर्थ, संवेदना और विचार लिए हुए यह ताज़ा संग्रह इसका नया उदाहरण है।
सुधांशु उपाध्याय
नवगीत-कविता में नए प्रयोग, अनूठे शिल्प एवं नए मानक तैयार करने एवं वैचारिक संपन्नता देने वाले विशिष्ट कवि।
प्रकाशन : नवगीत संग्रह : समय की ज़रूरत है यह, पुल कभी $खाली नहीं मिलते, आने वाले कल पर।
शब्द हैं साखी (आलेख संग्रह), आधुनिक पत्रकारिता और ग्रामीण संदर्भ (पत्रकारिता)।
हिन्दी की प्राय: सभी पत्रिकाओं एवं वेब मैगजीन्स में रचनाएँ प्रकाशित।
आजीविका : पत्रकारिता
संपर्क : ए-1, पत्रकार कॉलोनी, इलाहाबाद-211001 (उ.प्र.) शायद : मणिमोहन
(Shayad : Manimohan)
मणिमोहन अपने इस संग्रह में एक ऐसी कविता को अर्जित करने की जद्दोज़हद करते नज़र आते हैं जो उतनी ही सहजता से हमें समझ आ जाए जैसे माँ के चेहरे पर लिखी चिंता, पिता की आँख का गुस्सा, बहन की आवाज़ में दुख, बच्चे की किलकारी की खुशी और दोस्त की उदासी चेहरा देखकर ही समझ में आ जाती है। जैसे सुख और दुख समझ आ जाते हैं कविता भी उसी तरह समझ आनी चाहिये। मणिमोहन की कोशिश ऐसी ही कविता को पाने की है। वह लगातार अपनी भाषा में उस सादगी और सहजता को पाने की कोशिश करता है। वह उस कविता को पाना चाहता है जो हमारे सपनों में हमारी आकांक्षाओं में कहीं छुपी रहती है। यह सपने निरे सपने नहीं हैं यह सपने हमारे जीवन दृश्यों से बने हैं, जीवन की उथल पुथल और संघर्षों से बने हैं। इन जीवन दृश्यों में हमारी विराट प्रकृति भी, घर परिवार, अड़ोस पड़ोस भी और गाँव, गली, सड़क और मोहल्ले भी मतलब यह कि सृष्टि का कुछ भी इन दृश्यों से बाहर नहीं है। इस दृश्य में दृश्य और द्रष्टा के बीच की दूरी समाप्त हो गयी है। यहाँ द्रष्टा दृश्य के भीतर चहल$कदमी करता है और दृश्य स्वयं द्रष्टा के भीतर। कवि के सपने का घोंसला इसी तरह के दृश्यों से बना है और उसमें एक चिडिय़ा रहती है और उस चिडिय़ा का नाम कविता है।
मणिमोहन की कविता में यथार्थ, सपने और फैंटेसी एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जाते हैं। वह अपने गाँव के डूब में आजाने और वहाँ से लगातार होते निर्वासन, अपने कस्बे से शहरों की ओर हो रहे विस्थापन, कस्बों में बढ़ रही उदासी और उदासीनता की कविता है। यह कविता में चीजों से लेकर संवेदनाओं तक में आरहे भोथरेपन के भयावह अहसास से उपजी एक चीख है। यह बाज़ार की आक्रामकता और दिनोदिन बढ़ रही बर्बरता के विरूद्ध प्रतिरोध की कविता है।
यह हमारे समय और भाषा के बीहड़ में एक घर और एक कविता को तलाशने की कोशिश करती कविता है।
--राजेश जोशी
मणि मोहन
जन्म : 02 मई 1967, सिरोंज जिला विदिशा (म. प्र.)
शिक्षा : अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर और शोध उपाधि।
प्रकाशन : महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ तथा अनुवाद प्रकाशित। वर्ष 2003 में मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता-संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कविताएँ’ प्रकाशित।
वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सॉरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए’ उद्ïभावना से प्रकाशित।
संप्रति : सुभद्रा शर्मा शासकीय कन्या महाविद्यालय, गंज बासौदा में अध्यापन।
संपर्क : विजय नगर, सेक्टर बी, बरेठ रोड, गंज बासौदा-464221 (म. प्र.)यहॉं ओज बोलता है : शैलेय
(Yahan Oj Bolta Hai : Shailey)
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| Rs. 200/- |
शैलेय का यह तीसरा कविता-संग्रह है—अपनी चिरपरिचित सकर्मक रचनात्मकता के गहन आत्म संघर्ष, व्यापक सांस्कृतिक भावबोध व अभिव्यक्ति की अनूठी तथा सहज बेलौसी के साथ। यही काल है कि एक युयुत्स जिजीविषा की पर्याय उनकी कविताएँ समकालीन नए कवियों में उन्हें एक विशिष्ट ऊर्जस्वी पहचान देती है।
'या’ और 'तो’ सरीखे व्यापक चर्चित काव्य-संग्रहों के बाद अब 'यहाँ ओज बोलता है’ में भी शैलेय न केवल अनावश्यक काव्यस्फीति के विरुद्ध खड़े हैं बल्कि वे परंपरा में मिली स्वस्थ विरासत को नए सांस्कृतिक मूल्यों के साथ बढ़ाते हुए उसे सर्वथा एक नया संदर्भ देते हैं। वे इस जटिल संक्रमणकाल की गहन पड़ताल करते हैं और काली ताकतों के विरुद्ध प्रतिरोध की अक्षुण्ण परंपरा को बढ़ाते हुए पाठक समुदाय के समक्ष वैश्विक स्तर पर एक नया विधान-नई चुनौती-नए कार्यभार खड़े करते हैं।
महत्त्वपूर्ण है कि इसके लिए वे किसी नारेबाजी के बजाय हमारे रोज़मर्रा के जीवन में आस-पास छूटती मामूली चीज़ों, छोटे-छोटे सपनों और संघर्षों के विरल अनुभवों को पूरी शिद्दत तथा तार्किकता के साथ अभिव्यक्त करते हुए एक ऐसा आख्यान रचते हैं जहाँ कविता और भावक के साथ-साथ स्वयं कवि भी नए संस्कार ग्रहण करता चलता है। नए समय की चुनौतियों के संधान को तत्पर होता चलता है। तभी तो वे कहते हैं, 'जो छोड़ता ही जाता है अपनी धरती/ न चाहते हुए भी डूब जाता है समुद्र में।’ या फिर 'अनुपात सही हो तो / तीखापन / जिंदगी को जायका ही देता है।’
मौजूदा विद्रूप समय से मुठभेड़ करती ये अन्यतम सघन कविताएँ निश्चय ही जहाँ मनुष्य की अदम्य जिजीविषा की द्योतक हैं वहीं ये स्वयं कविता के उज्ज्वल भविष्य और उसकी उपादेयता के प्रति गहरी आश्वस्ति भी।
शैलेय
जन्म स्थान : ग्राम जैंती (रानीखेत), जनपद अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड।
शिक्षा : पी-एच.डी. (हिन्दी)
लम्बे समय से मजदूर आंदोलन और कुष्ठ रोगियों के मध्य कार्य।
संस्कृति कर्म में सक्रिय।
उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान जेल यात्रा।
किशोरावस्था से ही अनेक फुटकर नौकरियाँ एवं पत्रकारिता।
प्रकाशन : 'हलफनामा’ (उपन्यास), 'या’ (कविता-संग्रह), 'तो’ (कविता-संग्रह), 'यहीं कहीं से’ (कहानी-संग्रह)।
'नई कविता : एक मूल्यांकन’ (आलोचना पुस्तक)
पर्शियन कविताओं का हिंदी अनुवाद।
संपादन : 'द्वार’ तथा ' इन दिनों’ (साहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिकाएँ)।
सम्मान : परंपरा सम्मान, शब्द साधक सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, परिवेश सम्मान, अम्बिका प्रसाद दिव्य सम्मान, वर्तमान साहित्य सिसौदिया सम्मान, शैलेश मटियानी कथा-स्मृति सम्मान।
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर।
पता : डी2-1/14 मेट्रोपोलिस सिटी,
रूद्रपुर-263153 (उत्तराखण्ड)
गजल-संग्रह
वक्त की हथेली में : हातिम जावेद
(Waqt Ki Hatheli Mein : Hatim Zaved)
'वक्त की हथेली में’ सुपरिचित गज़लकार हातिम जावेद का पहला गज़ल-संग्रह है। उर्दू मिज़ाज की इनकी गज़लों में क्लैसिक परंपरा और आधुनिक समय के दबावों का अच्छा संतुलन है। इनकी गज़लों में आज के समय-समाज में मनुष्य की स्थिति, बेचैनी, दुख-दर्द, हँसी-खुशी, जय-पराजय आदि से बाबस्ता चिंताओं-क्षणों को खूबसूरती से शब्दों में ढालने का ईमानदार शायराना प्रयास नज़र आता है—
दर्द की टोकरी सर पे रक्खे हुए।
मेरी दहलीज़ पर मुफलिसी आ गई॥
जब भी ख्वाहिश खिलौनों की बच्चों ने की।
रक्स करती हुई बेबसी आ गई॥
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सबको अपनी-अपनी फिक्र।
किसकी गठरी देखे कौन??
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पहले जिंदा दफना दी जाती थी लड़की।
अब पैदाइश से पहले मारी जाती है॥
इस संग्रह में गज़ल के अलावा इनके कुछ महत्त्वपूर्ण कित्आत भी हैं जो निश्चय ही देर तक जहन में टिकी रहने वाली है।
डॉ. मो. हातिम जावेद
साहित्यिक नाम : हातिम जावेद
पिता : शहादत हुसैन 'जिगर’ मेहसवी
माता : बीबी बकरीदन
पत्नी : महजबीन अंसारी (शिक्षिका)
साहित्यिक गुरु : 'जिगर’ मेहसवी
जन्म तिथि : 9 जनवरी, 1963
शैक्षणिक योग्यता : बी.एच.एम.एस.
सम्मान : सिद्दीक बेदिल सम्मान (2007), भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान (2008), चन्द्रगुप्त मौर्य सम्मान (2012)
सम्प्रति, मेडिकल ऑफिसर, स्वास्थ्य विभाग, बिहार सरकार।
स्थायी पता : ग्राम : विशम्भपुर, पो. मेहसी, जि़ला-पूर्वी चम्पारण, बिहार













