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जून, 2011 के पहले सप्‍ताह में जारी छ: नई पुस्‍तकें :

धर्मस्थल
Price : HB 225/- PB 110/-
'धर्मस्थल में थावाच है विजन, जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। थानायक कामिल का बालसखा। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्त्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है, खिलती-खुलती है।
उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र है आकर्षक व्यक्तित्व का धनी कामिल का मूर्तिकार पिता ! यह ऐसा मुर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौंदर्योन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे भीतर जा धँसता है।
प्रियंवद की लेखन-यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा शायद ही संभव हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय-व्यवस्था के वधस्थल या क़त्‍लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज़ है। यह आयातित भारतीय दंड-संहिता, जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है, में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न  खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्त्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।
इतनी खूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलत: इतिहासविद माने जानेवाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी।
धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं, जज जल्लाद तो नहीं? मुवक्किल, कचहरी के मकडज़ाल में फँसा, मरता निरीह कीड़ा तो नहीं?
निश्चय ही यह उपन्यास अपनी अंतर्वस्तु के लिहाज से भी हिन्दी साहित्य की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।


परिचय : प्रियंवद
जन्म : 22 दिसम्बर, 1952 कानपुर
शिक्षा : एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति)
कृतियाँ : 'वे वहाँ कैद हैं, 'परछाई नाच, 'छुट्टी के दिन का कोरस' (उपन्यास), 'एक पवित्र पेड़', 'खरगोश', 'फाल्गुन की एक उपकथा', 'आईना घर' (कहानी-संग्रह), 'भारत विभाजन की अंत:कथा' (इतिहास) आदि पुस्तकें प्रकाशित।
'फाल्गुन की उपकथा' पर आधारित फिल्म 'अनवर' (2007) और 'खरगोश' (2008) फिल्म का स्क्रिप्ट-लेखन।
कथाक्रम सम्मान और विजय वर्मा पुरस्कार से सम्मानित।
संप्रति, स्वतंत्र लेखन और निजी उद्योग।
संपर्क : 15/269, सिविल लाईन्स, कानपुर-208001 (उ.प्र.)


लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
Price : HB 225/- PB 110/-
'सपनों के ठूँठ पर कोंपल' और 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' कहानियाँ सपने के ही बारे में हैं। इनसान मेहनत करनेवाला प्राणी है, प्रज्ञाशील और कमाऊ। काम से विकसित बुद्धि से वह कल्पनाओं का सृजन करता है। सपना देखता है कि आनेवाले कल की जि़ंदगी अधिक स्वेच्छा और सुख से भरी होगी। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त। उम्र के उसी पड़ाव ने भगत सिंह, चेग्वेरा, नक्सलबाड़ी, श्रीककुलम और आज की क्रांति को भी जन्म दिया है। अगर वे सपने न होते तो समाज में प्रगति नहीं हुई होती। इसलिए पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश कहते हैं कि सपनों का मर जाना ही खतरनाक होता है।
सत्यनारायण पटेल ने एक सपने के बारे में लिखा। एक टूटे सपने के फिर से हरा होने के बारे में। दोनों कहानियों का संदर्भ वर्तमान है। पिछले दो दशकों से राज़ करनेवाले साम्राज्यवादी वर्तमान में भविष्य के सपने को खतरे में डाल रहे हैं।
'सपनों के ठूँठ पर कोंपल' कहानी में सतीश के जीवन में एक के बाद एक कई घटनाएँ घट जाती हैं। सतीश की आँखों के सामने झोंपड़पट्ïटी में बसे लोगों को विस्थापित किया जाता है, जिस आदमी को वह समाजसेवी समझता है वह दलाल साबित होता है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर क्रांतिकारी बात करनेवाला सिंगूर और नंदीग्राम के मामले पर चुप्पी साध लेता, जो सतीश को अखरता है।
सतीश कभी अपने पिता के तेल-व्यापार को ही स्वार्थी धंधा समझता है, लेकिन जब पिता का जमा धंधा और उसके जैसे कई लोगों के छोटे-बड़े धंधे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैरों तले कुचलते देखता है, तब वह दुख मिश्रित निराशा से भर उठता है। आत्महत्या करने की कोशिश करता है, लेकिन असफल रहता है और अस्पताल पहुँच जाता है। कभी जिस पवन को सतीश ने यशपाल, शरतचंद्र और प्रेमचन्द की किताबें पढऩे को दी थीं, वही पवन बसंत की बयान बनकर सतीश के सपनों के ठूँठ पर कोंपल उगा देता है।
'लाल छींटवाली लुगड़ी का सपना' पढ़कर मुझे तीन संदर्भ याद आए। किशनचंदर की एक कहानी में एक दलित युवक कम्युनिस्ट बनकर अच्छा-सा नाम रख लेता है, लाल कमीज़ पहनने की इच्छा की खातिर ज़मींदारी व्यवस्था से लड़तेे हुए अमर हो जाता है। सतीश चंदर की कहानी में एक युवती रेशमी साड़ी पहनने की इच्छा के कारण प्राणों से हाथ धो बैठती है। फिर सुप्रसिद्ध गायक गद्दर का गीत 'वंदना लो वंदनालम्मा' के बारे में कहने की ज़रूरत नहीं। उसमें एक माँ रेशमी कमीज़ सिलवाकर रखती है। दशहरे पर पहनकर जाने के लिए बेटे से कहती है, पर उनके जीवन में विजयादशमी का पर्व कब आएगा?
लेकिन, जब तक समुद्र में लहरें होंगी/आकाश में तारे होंगे/चाहे समुद्र में बड़बानल हो या आकाश में अमावस्या की रातें/धरती पर सपने देखने वाले इनसान रहेंगे। कुछ बरस पहले तक अजेय समझा जाने वाला स्टॉक एक्सचेंज के साँड का कूबड़ टूटकर गिर गया। रँभाने के बदले वह गुर्राने लगा है। जहाँ... सपनों के टूट जाने का डर था, वहाँ कंपनी डूब गई। आज पृथ्वी पर चाहे किसी का भी कब्जा हो, कभी न कभी यह भूमि-पुत्रों के अधीन होकर रहेगी।
वरवर राव
परिचय : सत्यनारायण पटेल
जन्म : 6 फरवरी, 1972 को देवास में।
दर्जन से ज़्यादा कहानियाँ और कई वैचारिक लेख महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
'भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान' कहानी-संग्रह और 'लाल सलाम' शृंखला की कुछ संपादित पुस्तिकाओं के बाद यह उनका दूसरा संग्रह है। फोटोग्राफी, फिल्म और डॉक्यूमेंट्री निर्माण के साथ-साथ रंगमंच में गहरी रुचि। सामाजिक-सांगठनिक कार्यों में भी सक्रिय।
संपर्क : एम-II/199, अयोध्यानगरी, इंदौर-11 (म.प्र.)


पाँच का सिक्का 
Price : HB 225/- PB 110/-
सामाजिक चिंताओं से बाबस्ता रखनेवाले हिन्दी के युवा कथाकारों में जो कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं, उनमें अरुण कुमार 'असफल' एक सुपरिचित और भरोसेवाला नाम है। शहर-कस्बे की जिंदगी में संघर्षशील तबके की मुश्किलों के साथ-साथ उनकी हसरतों को जिस चाक्षुष और तलस्पर्शी भाषा में अरुण बयान करते हैं, ऐसा उनके समकालीनों में विरल है। ग्लोबल बाज़ार के इस दौर में दबे-कुचले लोगों के लिए जो नई-नई परेशानियाँ आई हैं और उन परेशानियों के बीच जो नई तरह की चुनौतियाँ बढ़ी हैं उनका बेहतरीन चित्रण इस संग्रह की कहानियों में हुआ है। महत्त्वपूर्ण कि ये बातें कथा-स्थितियों में इस तरह पगी हुई हैं कि इनकी पठनीयता और समस्याओं की गंभीरता कहीं बाधित नहीं होती।
'कंडम', 'पाँच का सिक्का', 'स्याही और तेल', 'पुरानी कमीजें' आदि अरुण की पहले से चर्चित ऐसी कहानियाँ हैं जिसे सिर्फ कथा-मर्मज्ञों ने ही नहीं, व्यापक पाठकों की भी पर्याप्त सराहना मिली है। जटिल से जटिलतर बातों को सहज रूप में कहने के उस्ताद कथाकार अरुण की नाल पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन में इस कदर गहरे धँसी है कि उन्हें किसी लटके-झटके की ज़रूरत नहीं पड़ती। गौरतलब है कि आज जबकि ढेर सारे लोग अमूर्तता और काव्यात्मकता में पनाह खोज रहे हैं, तब भी अरुण सहज और सरल भाषा में सीधी बात कहने के पक्षधर हैं। तभी तो वह 'पाँच का सिक्का' के निनकू और उसकी माई जैसे यादगार चरित्र हिंदी कहानी को देते हैं।

परिचय : अरुण कुमार 'असफल'
जन्म : 18 जुलाई, 1968 को गोरखपुर में।
शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक, हैदराबाद से सर्वेयिक कोर्स।
कृतियाँ : हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। 'पौ फटने से पहले' के बाद 'पाँच का सिक्का' दूसरा कहानी-संग्रह है।
संप्रति, भारतीय सर्वेक्षण विभाग, जयपुर में कार्यरत।
संपर्क : आवास सं. 23, सेक्टर-3, निर्माण विहार-3, विद्याधर  नगर, जयपुर-302023 (राजस्थान)


नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं
Price : HB 200/- PB 100/-
हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है। एक जद्दोजहद जारी है कहानियों के लिए एक नया स्वरूप, नई संरचना, नया शिल्प पाने की। इस जद्दोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियाँ भी हैं। इस समय जबकि संकल्पनाएँ टूट रही हैं, प्राथमिकताएँ बदल रही हैं, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में नई सत्ताएँ और गठजोड़ उभर रहे हैं, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैंस्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाए। लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है और उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य इसमें नहीं है।
अनिल जानते हैं कि नए शिल्प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्पाक्रांत हो जाए या भाषिक करतब को ही कहानी मान लिया जाए। ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई पक्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं। अनिल का सचेत चुनाव है कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे। वे कहानियों के लिए किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इंकार करते हैं जहाँ न परंपरा की गाँठें हों, न इतिहास की उलझनें। वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं। तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियाँ बरामद कर लाते हैं। तभी लिखी जाती हैं 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं' और 'दंगा भेजियो मौला' जैसी अद्वितीय 'डार्क' कहानियाँ, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुई कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं या केवल भव्य और आकर्षक शिल्प से नहीं बनती, वह बनती है दोनों की एकता से। 'लोक कवि का बिरहा', 'लिबास का जादू' और अन्य कहानियों में भी हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज़, नैसर्गिक ताना-बाना, संतुलित और सधा हुआ शिल्प, लेकिन अंतत: उन्हें जो कहानी बनाता है वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना। इन कहानियों का अनुभवजगत बहुत विस्तृत है, उतना ही गझिन और गहरा भी। आज के कथा परिदृश्य में 'लोक कवि का बिरहा' जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्ष का मार्मिक आख्यान हैै, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी।
इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी-पहचानी चीज़ के अर्थों में तोड़-फोड़ की जा रही है। जहाँ अस्पष्टता को एक गुण मान लिया जाए वहाँ अर्थों की स्पष्टता भी एक अवगुण हो सकती है। इन कहानियों में न अस्पष्टता है, न  चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आंकाक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश। लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं।
योगेन्द्र आहूजा
परिचय : अनिल यादव
जन्म 1967 कानपुर। जड़ें पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जि़ले के दौलतपुर गाँव में। शिक्षा बीएचयू समेत कई विश्वविद्यालयों में। छात्र एवं किसान आंदोलनों में सक्रियता। पेशे से पत्रकार, फिलहाल अंग्रेज़ी दैनिक 'द पॉयनियर' में प्रधान संवाददाता। उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के कई हिस्सों की यात्राएँ। कई यात्राएँ बेमकसद भी। सेन्टर फार साइंस एंड इनवैरॉन्मेंट, मीडिया फेलोशिप के तहत अरुणाचल प्रदेश में कार्य। संगम राइटर्स इन्टरनेशनल रेजिडेन्सी प्रोग्राम, 2010 में भागीदारी। इन दिनों लखनऊ में रिहाइश।

समय से लड़ते हुए
Price : HB 200/- PB 100/-
दुष्यंत के बाद व्यवस्था-विरोध को अपने समय-संदर्भों में शेरों के माध्यम से जिन कुछेक गज़लकारों ने जीवंत बनाए रखा, उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम नरेन्द्र का भी है।
'समय से लड़ते हुए' नरेन्द्र का दूसरा गज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 120 धारदार गज़लें शामिल हैं। हमारी आज की दुनिया को पूरी तरह खुशगवार, समस्या-विहीन, न्याय-पूर्ण, समता-मूलक, मानवीय सद्गुणों से युक्त होने का स्वप्न देखने वाले नरेन्द्र एक चेतस कवि के समान अपने समय की आवाज़ को एक पल के लिए भी अनदेखा नहीं करते। यह, एक तरह से राजनीतिक समय है और नरेन्द्र अपनी गज़लों में राजनीति-निरपेक्ष दिखने की कोशिश बिल्कुल नहीं करते। आम आदमी को सामने रखकर, जहाँ नरेन्द्र एक फैसलाकुन राजनीतिक लड़ाई आवश्यक समझते हैं, वहीं अपने भय से आदमी की मुक्ति भी उन्हें ज़रूरी लगती है। गज़लगो को वैज्ञानिक समझवाली जन-एकता भी अभीष्ट है। नरेन्द्र को आश्चर्य होता है कि जिन अल्प-संख्यकों को अविश्वास और संशय के दायरे में जकड़कर मुख्यधारा से अलग रखा जा रहा हो, जिन दलितों-वनवासियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो, उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? नरेन्द्र अपने शेरों में ऐसे अनेक असुविधाजनक सवाल उठाते हैं। यद्यपि चेतस कवि को पता हैआम आदमी के इस गुस्से का तअल्लुक समाजार्थिक स्थितियों से भी है।
बहरहाल, जीवन की अनगिन मुश्किलों के बीच 'समय से लड़ते हुए' में नरेन्द्र अपनी शायरी के मार्फत दुनिया को बेहतर और बेहतर बनाने की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। उनकी यही कोशिश, उनके शेरों को पूरी तरह जीवंत, अर्थवान्ï और विश्वसनीय भी बनाती है।
जहीर कुरैशी

परिचय : नरेन्द्र
जन्म : 16 जनवरी, 1956
शिक्षा : एम.ए., डीएचएमएस (ऑनर्स)
प्रकाशित पुस्तकें : 'हँसते आँसू' (कविता-संग्रह), 'कोई एक आवाज़' (गज़ल-संग्रह), 'राजा सलहेस' (नृत्य नाटिका)।
हिन्दी-मैथिली में शताधिक कविता, गज़ल, कहानी, लेख आदि रचनाएँ प्रकाशित।
सम्प्रति : दैनिक सन्मार्ग, राँची में सहायक संपादक।
स्थायी पता : पुनर्नवा, दिग्घी पश्चिम, मिश्रटोला, दरभंगा-846004 (बिहार)

पुश्तों का बयान
Price : HB 200/-
राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीका और अनपेक्षित गहराइयाँ देखने को मिलती हैं। अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या कि बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती, या मुआफि नहीं आती। राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं। वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं, और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है। उनकी कविता में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती हैपहले से पता नहीं चलता यह किधर जाएगी। यह गेयता और आख्यानपरकता के बीच ऐसी धुंधली सी जगहों में अपनी ओट ढूँढ़ती है जहाँ से दोनों छोर दिखते भी रहें। ऐसे ठिकाने राजेश को खूब पता हैं।
राजेश व्यक्तिगत और राजनीतिक के दरम्यान फासला नहीं बनाते। वह मध्यवर्ग के उस तबके के दर्दमंद इंसान हैं जो आर्थिक नव-उदारीकरण  और लूट के इस दौर में भी जन-साधारण से दूर अपना अलग देश नहीं बनाना चाहता। जो मामूलीपन को एक नैतिक अनिवार्यता की तरहऔर इंसानियत की शर्त की तरहबरतता है। वह इस तबके की मौजूदगी और अब भी उसमें मौजूद नैतिक पायेदारी को लक्षित करते रहते हैं। राजेश एक सच्ची नागरिकता के कवि हैं, और अपने कवि को अपने नागरिक से बाहर नहीं ढूँढ़ते। शहर देहरादून को कभी इससे पहले ऐसा जि़म्मेदार और मुहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा।
वह अपनी ही तरह के पहाड़ी भी हैं। पहाड़ी मूल के समकालीन कवियों में पहाड़ का अनुभव दरअसल प्रवास की परिस्थिति या प्रवासी दशा की आँच से तपकर, और मैदानी प्रयोगशालाओं से गुज़रकर, ही प्रकट होता है। इस अनुभव की एक विशिष्ट नैतिक और भावात्मक पारिस्थतिकी है  जिसने बेशक हिन्दी कविता को नया और आकर्षक आयाम दिया है। राजेश सकलानी की कविता इस प्रवासी दशा से मुक्त है, और उसमें दूरी की तकलीफ नहीं है। इसीलिए वे पहाड़ी समाज के स्थानीय यथार्थ को, और उसमें मनुष्य के डिसलोकेशन और सामाजिक अंतर्विरोधों को, सर्वप्रथम उनकी स्थानीयता, अंतरंगता और साधारणता में देख पाते हैं। यह उनकी कविता का एक मूल्यवान गुण है।
राजेश की खूबी यह भी है कि वह बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं : उनकी इबारत बहुत जल्दी ही, बिना किसी जलवागरी के, पाठक से उन्सियत बना लेती है। यकीनन यह एक लम्बी तपस्या और होशमंदी का ही हासिल है।
असद ज़ैदी

परिचय : राजेश सकलानी
जन्म : 20 फरवरी 1955, पौड़ी गढ़वाल।
स्कूली शिक्षा : उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों में। एम.एस-सी. (कैमिस्ट्री), श्रीनगर, गढ़वाल।
पो. ग्रे. डिप्लोमा, इंडस्ट्रियल रिलेशंस एण्ड पर्सनल मैनेजमैन्ट, भारतीय विद्याभवन, नई दिल्ली
प्रकाशन : कविताएँ, कहानियाँ व समीक्षात्मक लेख महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कई कहानियाँ आकाशवाणी से प्रसारित।
'सुनता हूँ पानी गिरने की आवाज़' काव्य संग्रह (वर्ष 2000)।
शुरू में एक दैनिक समाचार पत्र में कुछ समय तक कार्य किया।
'युगवाणी' साप्ताहिक/मासिक से एक लंबे समय से जुड़ाव। विशेष अंक 'जनधारा में संपादन सहयोग।
संप्रति, पंजाब नेशनल बैंक, देहरादून में कार्यरत
संम्पर्क : म.न. 9, मुख्य लेन, तपोवन एन्क्लेव, पो.आ. रायपुर, देहरादून-248008 (उत्तराखण्ड)

अंतिका प्रकाशन की आगामी सेट की किताबें

आलोचना
गद्य की पहचान : अरुण प्रकाश
उपन्यास के रंग : अरुण प्रकाश
स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न और नागार्जुन के उपन्यास : श्रीधरम
चन्द्रेश्वर कर्ण रचनावली (पाँच खण्डों में) : संपादक : श्रीधरम
कला
समकालीन भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने : अशोक भौमिक
कहानी-संग्रह
पाताल पानी : मदन मोहन
उपन्यास
शिप्रा एक नदी का नाम है : अशोक भौमिक
जहाँ एक जंगल था : मदन मोहन
अधूरे सूर्यों का सत्य : प्रकाश कांत
भूलन कांदा : संजीव बख्शी
मोड़ पर (मैथिली) : धूमकेतु अनु. स्वर्णा
डॉक्टर ग्लास (स्वीडिश) : ज़लमार सॉडरवैरिए अनु. द्रोणवीर कोहली
कविता-संग्रह
बुरे समय में नींद : रामाज्ञा शशिधर

मकबूल फिदा हुसैन के विशेष संदर्भ में भारतीय कला परंपरा पर एक नजर

♦ अशोक भौमिक

आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं कि जहां कई बार वर्तमान को सिद्ध करने के लिए हमें अतीत के संदर्भों को परखने की आवश्यकता होती है। हम जानते हैं कि भारतीय कला के एक बड़े हिस्से का विकास मिथकों, धार्मिक प्रतीकों के आधारंपर निश्चय ही हुआ पर इससे भी महत्‍वपूर्ण सत्य यह है कि ऐसी महान उत्कृष्ट कला का विकास जिन कलाकारों द्वारा हुआ, उनमें परिवेश, समाज, सौन्दर्य बोध, स्वीकार और निषेध के बीच का संघर्ष आदि का सुस्पष्ट प्रभाव था। और इसीलिए हमें आश्चर्य नहीं होता, जब हम पाते हैं कि सदियों से कलाकार अपनी सृजनशीलता, स्वाधीनता और स्वायत्तता को आधार मानकर कला की ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करने में समर्थ रहा है, जहां वह देवी-देवताओं के रूप की परिकल्पना कर, उसे उनकी अवधारणा और मिथकों से जोड़ते हुए और उनकी मूर्ति तक गढ़ने में सफल होता है। कल्पना कीजिए कि ब्रह्मांड के रचयिता की मूर्ति तक की रचना, भारतीय कला में एक कलाकार अनायास ही, बिना किसी जटिलता के कर डालता है। प्रख्‍यात कला समीक्षक आर्नल्ड हाउजर ने कहा है कि “कला-निर्माण के पहले कलाकार का निर्माण होता है।” और कि एक कलाकार अपने हर कलाकर्म के साथ प्रवीण होता रहता है। कला के विकास क्रम में कला और कलाकार के बीच की यह द्वंद्वात्मकता, निरंतरंप्रवहमान रही है। चूंकि एक कलाकार की रचना में उसके अतीत, वर्तमान के साथ-साथ उसके वैचारिक संघर्ष का और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक अवधारणाओं का प्रभाव अवश्य रहता है। लिहाजा यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि कला एक कलाकार की कृति होते हुए भी उसके समाज के विभिन्न लक्षणों औरंप्रवृत्तियों के स्वीकारों और बहिष्कारों का दस्तावेज भी होता है। किसी राजा के सिंहासन पर बैठने या उसके साम्राज्य के पतन से कलाधारा बदल नहीं जाया करती है। बल्कि इसकी निरंतरता, इसकी स्वयत्तता को रेखांकित करती है। जो लोग कला से कला की निरपेक्षता की मांग करते हुए एक अराजनैतिक कला की पक्षधरता की बात करते हैं वे दरअसल सामाजिक परिस्थितियों के परिपेक्ष में ही निर्वाक या तटस्थता की पैरवी करते हैं। और सतही तौरंपर निरीह और कलावादी लगने वाली यह स्थिति कभी भी अराजनैतिक नहीं होती। मैंने यहां इसका उल्लेख इसलिए किया कि प्राय: चित्रकार को हम उसे समाज से विच्छिन्न एक विशिष्ट प्राणी का दर्जा दे देते हैं जो वास्तव में एक असंभव सी परिकल्पना है। हजारों वर्षों की भारतीय कला परंपरा में चित्रकला अपने समाज या अन्य कलाओं से कटकर विकसित नहीं हुई। अन्य सभी कलाओं की तरह यह भी समाज और समय के साक्षी बनकर अतीत की कथाओं, अवधारणाओं और मिथकों का प्रतिनिधित्व करती रही है। इसलिए चित्रकला परंपरा में मिथकों को चिन्हित करना दरअसल हमारे साहित्य एवं अन्य कलाओं पर मिथकों के प्रभाव को तलाशना है।
धर्म से लेकर इतिहास की रचना प्रक्रिया में कला का एक स्वतंत्र महत्‍व है। पृथ्वी का कोई धर्म शुद्ध इतिहास नहीं है या घटनाओं का प्रामाणिक गजट भी नहीं है। ये सभी रचित हैं। कलाकारों की रचनाएं हैं। हालांकि धर्मांध और कठमुल्लों के लिए यह सच आसानी से पचाना संभव नहीं है। वे यही कहेंगे कि ऐसी रचनाओं का आधार सत्य होता है, या फिर ये सब कोरी कल्पनाएं नहीं हैं। अपनी गजब कल्पनाशील दलीलों से वे धार्मिक कथाओं को इतिहासम्‍मान लेते हैं, पर बावजूद इसके सभी धार्मिक ग्रंथ निर्विवाद रूप से साहित्य कला के उदाहरण हैं। जैसे धर्म पर आधारित कलाएं – भित्तिचित्र और मूर्तियां, चित्र तथा मूर्तिकला के उदाहरण हैं। ठीक वैसे ही मंदिर, मस्जिद, गिर्जा, स्तूप आदि वास्तुकला के निदर्शन हैं। यहां अगर ये स्वीकारा जाए कि समाज निर्माण में धर्म की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है तो इसके साथ यह भी मानना पड़ेगा कि धर्म और समाज निर्माण में कला की एक रचनात्मक भूमिका रही है। चूंकि ऐसी स्थिति में जहां कलाकार का अस्तित्व इतना स्पष्ट हो वहां रचनाशीलता, प्रयोगधर्मिता और गतिमयता की उपस्थिति निश्चय ही होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण भारतीय कला में निहित है। इन कलाकारों की महत्‍वपूर्ण उपस्थिति ने ही भारतीय कला में संशय (Confusion) और अज्ञानता (Ignorance) में से संशय को आधार मानकर अपनी अवधारणाओं को निर्विवाद समझकर, उसे प्रश्नों के दायरे के बाहर नहीं रखा। और इसलिए भारतीय कला विकास के कालक्रम में मिथकों में व्यापक परिवर्तन होते हुए देख पाते हैं। हम देवी-देवताओं और नायकों के चित्रण में एक अद्भुत वैविध्य से परिचित होते हैं। यहां उल्लेख करना उचित होगा, जहां एक ओर भारतीय कला निरंतर बाहरी प्रभावों को ग्रहण कर अपनी कला को समृद्ध करती है वहीं अपने समाज के प्रति एक जिम्‍मेदार भूमिका भी निभायी है। इस जिम्‍मेदारी को हालांकि कई बार धर्मप्रचार, राजाओं के गुणगान और मिथकों के निर्माण के रूप में देख सकते हैं, पर इसके अलावा भी एक महत्‍वपूर्ण दर्शन या विचारधारा के लोकहित चेष्टाओं को सफल बनाने में साहित्य से अधिक कारगर होते हुए पाते हैं। पर साहित्य को आधार मानकर मनोरंजन के उद्देश्य लिए विकसित, भारतीय कला की भी एक लंबी परंपरा रही है।
इस प्रकार भारतीय कला परंपरा एक उदार, संकीर्णता रहित निर्भीक कलाकर्म की निरंतर विकास के इतिहास की परंपरा रही है।
भारतीय कला में धर्म मिथक के बारे में विस्तार से व्‍याख्‍या लगभग असंभव-सा जान पड़ता है क्योंकि इसकी व्याप्ति सात-आठ हजार वर्षों और एक विशाल इलाके में फैली सभ्‍यता की देन है। पर इस विशाल कला परंपरा के कुछ पहलुओं को छूने की कोशिश अवश्य ही की जा सकती है। भारतीय कला को लेकर जो सबसे बड़ी आपत्ति विदेशियों की रही है – वो एक लंबे समय से नग्नता की विभिन्न अवधारणाओं के इर्द-गिर्द ही बनी रही है। इधर के दिनों में एक प्रचलन विदेशों में दिखाई दे रहा है, जहां भारतीय देवी-देवताओं को यानी कि भारतीय कलाकारों की रचनाओं का अद्भुत ढंग से विश्लेषण किया जा रहा है। जैसे गणेश जी को लें। यह भारतीय कला की रचनाशीलता की एक नायाब मिसाल है। स्थूलकाय मानव शरीर और सिर हाथी का! गणेश की एक फ्रॉयडियन व्‍याख्‍या अभी सामने आयी है कि गणेश का सूंढ़ उनके लिंग शैथिल्य का प्रतिनिधित्व करता है और मोदक नामक मिष्टान्न के प्रति उनकी अतिशय रुचि उनकी इडिपस ग्रंथि और अन्य अस्वाभाविक यौनप्रवृत्तियों के लक्षण हैं। इन सब व्‍याख्‍याओं के बारे में बातचीत हमें गैरजरूरी लगता है, क्योंकि अपने विचारों के वर्चस्व की कोशिश में (छद्म) बुद्धिजीवियों के ऐसे उदगारों को पिछले कई दशकों से हमने नये-नये रूपों में देखा है। इन दिनों अपने इतिहास और परंपरा से अभिन्न रूप से जुड़ी तमाम महत्‍वपूर्ण अवधारणाओं की (सतही) आलोचना करना, प्रगतिशील विचारक बनने का एक सहज और लगभग स्वीकृत रास्ता बन चुका है। और चौंकानेवाली स्थापनाओं की अनिवार्य उपस्थिति जहां गौरतलब है, वहीं यह भी सच है कि ऐसे विचार प्राय: स्वल्पायु के ही रहे हैं। पर हां, नग्नता के बारे में भारतीय विचार निश्चय ही पश्चिमी अवधारणाओं से भिन्न है। गुलामी के लंबे इतिहास में नग्नता के बारे में हमारे अपने विचारों को पश्चिमी विचारों ने काफी हद तक प्रभावित किया है। और भारतीय चित्रकला की अधूरी समझ और कभी-कभी निहित स्वार्थों के चलते अश्लील चिन्हित कर कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है।
भारतीय चित्रकला में अनावरण, अनावृत्त और नग्नता के बीच में सुस्पष्ट भेद है। वेदों में काली को महामही के साथ-साथ महानग्नी भी कहा गया है। भारतीय कला में उन्नत वक्ष और योनी को एक लंबे समय से अनावृत्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। मातृ छवि, यक्षी और तमाम देवियों के साथ-साथ आम नारी एवं परिचारिकाओं के चित्रण में इस सत्य की व्यापक उपस्थिति है। जैसा पहले ही कहा गया है, कि भारतीय कलाकारों में एक कुंठारहित स्वायत्तता की तलाश रही है जिसके चलते वे धार्मिक अवधारणाओं पर निरंतर प्रश्न उठाते रहे हैं। नारी चित्रण में उन्होंने नारी को उर्वरता और सृष्टि का आधार माना है और इसीलिए मूर्तियों में स्तन, योनी का प्रदर्शन एक प्रतीक के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। यहां इसे किसी नारी विशेष की देह संरचना की शुद्ध अनुकृति मान लेने से भारतीय चित्रकला परंपरा के बारे में हमारी समझ न केवल अधूरी रह जाएगी बल्कि इसमें विकृतियों की स भावनाएं भी बढ़ जाएंगी।
कला इतिहास में प्रतीकों के उपयोगों को प्राय: जटिल विषय को सरल बनाने के उद्देश्य से किये गये असफल प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है। भारतीय कला इतिहास भी ऐसी जटिलताओं से मुक्त नहीं है। अत्‍यंत सरल लगनेवाले शिवलिंग एक जटिल अवधारणा को सरल रूप से प्रस्तुत करने का असफल प्रयास सा लगता है। अत्‍यंत निरीह-सा लगने वाला स्वास्तिक हिटलर के राष्ट्रवाद की जटिल संकीर्णताओं को समझने के लिए पर्याप्त नहीं।
शालभंजिका के बारे में एक मिथक यह है कि गौतम बुद्ध की मां माया जब गर्भवती थीं तब उन्होंने शालवन में जाने की इच्छा प्रकट की थी। शाल वृक्ष की टहनी को स्पर्श करते ही उन्हें प्रसव पीड़ा का आभास हुआ। बुद्ध-जन्म के साथ जुड़ी इस घटना का व्यापक चित्रण भारतीय कला के विभिन्न कालों में देखा जा सकता है। दूसरे रूप में शालभंजिका की अवधारणा यह है कि बिना फल फूलों वाले वृक्ष को यदि कोई नारी स्पर्श या आलिंगन करे तो वह वृक्ष फलवती हो उठता है। दोनों अवधारणाओं पर आधारित असंख्‍य मूर्तियां भारतीय कला के हजारों साल के लंबे इतिहास क्रम में उपस्थित हैं। देवी-देवताओं के रूप और उनके बारे में अवधारणाएं भी समय के साथ-साथ बदली हैं। सुरों और असुरों द्वारा पूजित देवी-देवताओं के बीच के अंतर का लुप्त होने के प्रभाव को भी भारतीय चित्रकला परंपरा में देखा जा सकता है। यह धर्म या मिथक को जड़ न मान लेने से ही संभव हो सका है। लक्ष्मी जहां सुंदरता की देवी थी बाद में धन और सौभाग्य की देवी के रूप में उसकी रचना की गयी। बौद्ध धर्म के प्रचार में कला की न केवल एक महत्‍वपूर्ण भूमिका रही है, साथ ही कला विकास में बौद्ध जातक कथाओं, साहित्यिक कृतियों और अवधारणाओं का अपना महत्‍व रहा है।
भारतीय कला का लंबा इतिहास महज धर्म और मिथकों के सहारे ही आगे नहीं बढ़ा है। इसने कला, कहानी, नाट्यकथाओं, ऐतिहासिक घटनाओं का चित्रण करते हुए अशिक्षित जनता के प्रति अपनी जिम्‍मेदारियों को स्वीकारा भी है। सातवाहन काल के अमरावती स्तूप में अंकित इस कलाकृति को देखें, मानो दर्शक बन कर हम दो हजार वर्ष पूर्व के किसी नाटक को देख रहे हैं (चित्र 1, सातवाहन, आंध्र)। उदाहरण के रूप में उड़ीसा के रानी गुंफा और हाथी गुंफाकी दीवारों पर उत्कीर्ण कलाकृतियों का उल्लेख किया जा सकता है। लगभग एक सौ ईसा पूर्व बनाये गये इन कलाकृतियों में दुष्‍यंत-शकुंतला, कथा स्त्री अपहरण आदि प्रसंगों के साथ-साथ भारतीय साहित्य के कुछ प्रमुख नाट्यकथाओं का वर्णन है। जहां उदयन, वासवदत्ता, वसन्तक आदि चरित्रों की उपस्थिति को आज भी हम पहचान सकते हैं। चित्र या मूर्तिकला के साथ साहित्य व अन्य कलाओं का एक नायाब रिश्ता भारतीय कला को अपनी पहचान अवश्य देता है। इस संदर्भ में भारतीय कला इतिहास में शायद सबसे महत्‍वपूर्ण मूर्ति का जिक्र करना उचित होगा, (चित्र 2) सिंधुघाटी सभ्‍यता के समय की कला के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में हम एक नर्तकी की मूर्ति को पाते हैं। यहां गौर करें कि यह मूर्ति किसी देवी की नहीं है, यह मूर्ति एक नर्तकी की है जो नृत्यकला को प्रस्तुत कर रही है – जहां ताल है, संगीत है, कविता है, यानी साहित्य है। साथ ही इस मूर्ति को गौर से देखें तो यह मूर्ति बहुअलंकृत है। यह अनावृत्त है। नग्न है। पर इसमें नग्नता नहीं है। यह मूर्ति नग्नता के बारे में भारतीय कला की अवधारणा को निश्चय ही एक सुस्पष्ट आधार देती है। पश्चिम के लोगों की अवधारणा या उनसे प्रभावित लोगों की अवधारणा से यह भिन्न है। सिंधुघाटी सभ्‍यता की यह मूर्ति 2500 साल ईसा पूर्व की है।
अर्थात, आज से 4500 वर्ष पहले की कला! 4500 वर्ष पहले की कला की समझ! 4500 साल पहले के कलाकार की अभिव्‍यक्ति!
हमने भारतीय कला परंपरा में धर्म और मिथक के साथ-साथ आम नारियों के चित्रण और नाट्यकथाओं, ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण का जिक्र किया। मोहनजोदड़ो की नर्तकी किसी राज्याश्रित कला का प्रतिनिधित्व करती है या नहीं, यहां इसकी विवेचना महत्‍वपूर्ण नहीं है पर भारतीय कला इतिहास में लोककला का भी अपना एक स्वतंत्र इतिहास है। संरक्षण के अभाव से इसके इतिहास की कड़‍ियां विच्छिन्न अवश्य है पर इसकी रचनाशीलता के बारे में कोई संदेह नहीं है। यहां (चित्र 3) में ऐसे ही कुछ लोक कला के उदाहरण प्रस्तुत हैं जो तक्षशिला, वैशाली और राजघाट से प्राप्त हुए हैं। आश्चर्य की बात ये है कि मोहनजोदड़ो की नर्तकी जैसी ये मूर्तियां भी अनावृत्त हैं। इसके साथ यदि हम लौरिया नंदनगढ़ (चित्र 4) से प्राप्त मूर्ति को देखें जो 1600 से 1300 ईसा पूर्व के बीच बनायी गयी थी वह भी आश्चर्यजनक रूप से मोहनजोदड़ो नर्तकी जैसी ही अनावृत्ता है। तक्षशिला वैशाली राजघाट की मूर्तियां भारतीय लोककला के आरंभिक कृतियों में से हैं, जो नग्नता के बारे में भारतीय कला की अवधारणा को एक व्यापक सामाजिक स्वीकृति के साथ जोड़ते हैं।
यक्षी को भारतीय कला इतिहास में विभिन्न काल में विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया है। प्राय: सभी यक्षी मूर्तियों के वक्ष जहां अनावृत्त हैं, वहीं विविध वस्त्र के प्रचलन का प्रमाण भी इन्हीं यक्षियों से मिलता है। 300 ईसा पूर्व बनी दीदारगंज की मौर्यकालीन यक्षी (चित्र 5) भारतीय कला ही नहीं विश्वकला के सुंदरतम नमूनों में से एक है। (इस यक्षी के अनावरण की भव्यता हमें सहज ही वीनस-डे-मेलो की याद दिलाती है।) बहरहाल, अपनी बात को और भी स्पष्ट करने की कोशिश में देवी-देवताओं के चित्रण से हटकर, भारतीय कला में अनावरण की अवधारणा को और भी पुष्ट करती हुई गांधार कला के कुछ नमूनों पर यदि हम गौर करें, तो हमें अपनी ओर से कुछ जोड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती (चित्र 6)। ये सब 200 से 100 ईसा पूर्व के हैं। शुंग काल की यक्षी और नारी मूर्तियों में ऐसी रचनाशीलता की अद्भुत निरंतरता सहज ही दिखाई देगी। (चित्र 8
इससे यह स्पष्ट है कि जिस रचनाशीलता में नारी, उर्वरता और सृष्टि के मूल सूत्र के रूप में प्रतिबिंबित है, वहीं नारी के प्रति सम्‍मान भी अभिन्न रूप से जुड़ा रहा है। हजारों वर्षों के अंतराल के बाद भी ऐसी अवधारणा के प्रति भारतीय कलाकारों का विश्वास अटूट एवं प्रवहमान है – ऐसा मान लेना कठिन नहीं है।
मानव विकास के इतिहास क्रम में हम पाते हैं कि जिसभ्‍यात्रा की शुरुआत, मनुष्य ने अपने और अपने परिवेश के बीच के अंतर्संबंधों को जानने से शुरू की थी वह आगे चलकर विवेक और तर्क को न केवल अपने परिवेश को बल्कि अपने अतीत को भी जांचने का जरिया बनाया। जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे आधुनिक समाज, उन्नत समाज व्यवस्था के चलते असंख्‍य खेमों में विभाजित है। अमीर-गरीब, गोरे-काले, उच्चवर्ण-नि नवर्ण, शिक्षित-अशिक्षित, हिंदू-मुसलमान, स्त्री-पुरुष के अलावा विभाजन के असंख्‍य रूपों से हम परिचित हैं। किसी समाज में कला भी कई मायने में विभाजित होती है। उसी समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का होता है जिनका कला से या कलाकार के सरोकारों से कोई लेना-देना नहीं होता। यह तो सच है कि समाज में जीने वाला हर व्‍यक्ति का कला के प्रति समान रूप से जागरूक होना कतई संभव नहीं है। पर स्थिति कभी-कभी ऐसी बन आती है कि जब खास लोगों का एक समूह अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कला के तमाम पहलुओं पर निर्वाध अपनी राय देने लगते हैं। हालांकि यह अपवाद ही है – नियम कतई नहीं। यह अभिव्‍यक्ति की स्वतंत्रता का एक जटिल रूप है। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि जहां अभिव्‍यक्ति की स्वतंत्रता कलाकार को है, वहीं कला के बारे में अपनी राय देने का अधिकार दूसरों को भी है। पर कठिनाई ये है कि जिन लोगों का कला से कुछ भी लेना-देना नहीं, वे कला को जानने-समझने की कोशिश करने के बजाए उसका अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए मूर्खतापूर्ण विरोध करते हैं। यह स्थिति किसी भी हालत में किसी समाज में मान्य नहीं हो सकती। जैसा कि हमने तमाम उदाहरणों की जांच-पड़ताल के माध्यम से भारतीय कला में अनावरण या नग्नता की भारतीय अवधारणा को समझने की कोशिश की। उसी को आगे बढ़ाते हुए हम पाते हैं कि इस अवधारणा पर दो बातों का स्पष्ट प्रभाव है।
एक, यह कि भूमध्य रेखा के आसपास विकसित हुए इस सभ्‍यता में वस्त्रों के आविष्कार के बाद भी तन ढंकने का प्राकृतिक कारण किसी ठंडे प्रदेश से निश्चय ही कम था और है। पर क्या यहां यह मान लिया जाए कि सिंधु घाटी की कला से लेकर आधुनिक कला में प्रतिबिंबित नारी जाड़ों के मौसम में भी अनावृत्त रहती थी? स्वभाविक रूप से यह कल्पना असंभव है! पर कलाकार की रचना का एक सार्थक आधार, मानव देह संरचना (Human anatomy) से भारतीय कलाकार का परिचय निश्चय ही सघन था। यहां उदाहरण के तौर पर आधुनिक काल में भी बस्तर (चित्र 11) और अंदमान (चित्र 10) की कई आदिवासी जातियों में नग्नता की अवधारणा वह नहीं है जो हमारे अन्य ग्रामीण या शहरी इलाकों में रहनेवाले लोगों की है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि भारतीय कला 4500 हजार वर्ष पहले से लेकर अब तक कोरे प्रकृति चित्रण से हटकर एक कल्पनाश्रित कला रही है। और इसीलिए इन समस्त मूर्तियों की तथाकथित नग्नता, नारी शरीर का शुद्ध प्रतिबिंबन नहीं है बल्कि इसका आधार, कुंठारहित, स्वाधीन और रचनाशील कलाकारों की कल्पना है। और ऐसी कल्पनाशीलता भारत में सदियों से कलाकारों के लिए प्राथमिकता रही है।
भारतीय कला इतिहास के इन स्वर्णिम पृष्ठों को पलटते हुए हम आज के विषय के दूसरे हिस्से तक आ पहुंचे हैं जहां राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए कलाकार की रचनाशीलता को निशाना बनाया जा रहा है। पिछले दिनों बार-बार मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को लेकर विवादों का तूफान उठता रहा है। उन पर आरोप रहा है कि उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं का चित्रण नग्न और अश्लील ढंग से किया है। कई दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के समर्थकों ने उनके स्टूडियो पर हमला किया और प्रदर्शनियों से उनके चित्रों को हटाने के लिए मजबूर किया।
हुसैन आजादी के बाद के भारतीय कलाकारों में सबसे महत्‍वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला को एक सुस्पष्ट दिशा दी है जो दुर्भाग्य से पिछले चार दशकों से विकसित होते बाजारवाद के अंधेरे में आम जनता के लिए लगभग ओझल ही रही है। कलाप्रेमियों के लिए भी उनके चित्रों को मूलरूप से देख पाना निरंतर अस भव सा होता रहा है। “कल्पनां पत्रिका और असंख्‍य साहित्यिक कृतियों के आवरणों पर हुसैन कभी-कभार दिखाई देते थे। पर वहां भी अब खामोशी है।
एक ऐसी लंबी खामोशी के बाद अचानक हुसैन के चित्र आम लोगों की चर्चा के केंद्र में आ गये हैं। और वे लोग जो युवा कलाप्रेमी हैं, हुसैन के इस विवादग्रस्त चेहरे से ही परिचित हो पा रहे हैं। बहरहाल, पिछले कई दशकों से समाज का बड़ा वर्ग हुसैन को उनके चित्रों की विशिष्टता के लिए नहीं, बल्कि लाख से दस लाख, दस लाख से करोड़ तक की कीमतों के लगभग तिलिस्म-सी लगने वाली व्यावसायिक सफलताओं की कथाओं के लिए जानता रहा है। किसी भी कलाकार के लिए खासकर समकालीन भारतीय कला के एक ऐसे विशिष्ट कलाकार के लिए निश्चय ही यह दुर्भाग्यजनक स्थिति है। यहां उल्लेखनीय है कि भारत में समकालीन चित्रकारों में अपने चित्रों के लिए एक लाख रुपये की मांग करनेवाले हुसैन ही पहले चित्रकार रहे हैं। टाइम्‍स ऑफ इंडिया की 150वीं वर्षगांठ (1986) पर आयोजित नीलामी में हुसैन का एक चित्र (जो पूंजीवाद के विरोध में समर्पित रंगकर्मी सफदर हाशमी की शहादत पर आधारित था) पहली बार भारतीय समकालीन किसी भी कलाकृति की कीमत के दस लाख की सीमा को छू सका था। इससे लगभग 15 वर्ष बाद ही उनके चित्र एक करोड़ रुपये की सीमा को छू कर अब वे पांच और दस करोड़ के गंतव्य की ओर गतिमान है। ऐसे कला से विच्छिन्न विषय और उनसे जुड़े आंकड़ों से पाठकों का परिचय करना दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि हम यहां हुसैन जैसे महान चित्रकार के पिछले बीस वर्षों की अवधि में बने दस महत्‍वपूर्ण चित्र भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की स्थिति में नहीं हैं।
आप मकबूल फिदा हुसैन से उतना ही परिचित हैं जितना आप किसी अन्य भारतीय कलाकार से, या कि अपने आप से। इस सच को मान लेने से हम पाते हैं कि हुसैन साहब की उम्र लगभग छह हजार वर्ष की है। इस लंबी उम्र के विभिन्न पड़ाव के बारे में इस आलेख के पहले हिस्से में जिक्र किया गया है। और इससे “कलाकार” होने के साथ-साथ उनके एक दूसरे रूप से हम परिचित हो सकें हैं कि वे निर्विवाद रूप से ‘भारतीय’ हैं। भारतीय कला, पिछले हजारों वर्षों से विदेश के कला रूपों से प्रभावित रही है। महज गांधार कला ही केवल ग्रीक और रोमन विदेशी प्रभावों को लेकर विकसित हुई, ऐसा नहीं। विदेशी कलाओं से अपने को समृद्ध करने की एक लंबी परंपरा में भारतीय कला ने अपनी मूल विशिष्टता को बनाये रखा। वे ‘समकालीन’ कला प्रवृत्तियां ही थीं जिन्होंने अपूर्व गांधार बुद्ध मूर्ति को पहली बार बनाया औरंपिछली सदी के बीचोंबीच ये वही “समकालीन” विदेशी कला प्रवृत्तियां थीं जिन्होंने व्यापक रूप से आधुनिक भारतीय कला को प्रभावित किया। हुसैन भारतीय धर्मों, गाथाओं और मिथकों के साथ-साथ वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक परिस्थिति से भलीभांति संबद्ध रहे हैं। हालांकि रामायण-महाभारत जैसे विषयों पर बनाये गये उनकी महत्‍वपूर्ण और विशाल चित्र श्रृंखला से लेकर राममनोहर लोहिया, फैज, यामिनी राय, मदर टेरेसा, सत्यजित राय और सुनील गावस्कर पर बनाये गये उनके चित्र लोग अब लगभग भूल चुके हैं। इसलिए हुसैन का विवादों से घिरा हुआ चेहरा ही अब हमारे सामने रह गया है। हम यहां समकालीन भारतीय चित्रकला के कुछ ऐसे चित्रकारों के चित्रों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे जो हजारों वर्षों से चली आ रही निर्भीक, कुंठारहित कला का प्रतिनिधित्व करती है और ये याद दिलाती है कि आज भी भारतीय कला का मूल आधार, इसमें निहित कल्पनाशीलता है न कि कोरा प्रतिबिंबन। उसके पहले हुसैन के उन चित्रों को देखें जिनके लिए उन्हें अश्लील और हिंदुओं के आस्था पर आघात करनेवाला बताया गया है। पर इसके पहले एक बार फिर से दोहराना जरूरी है कि हुसैन प्राथमिक और अंतिम रूप से एक भारतीय चित्रकार हैं और उन्हें हिंदू-मुसलमान या किसी अन्य चित्रकार के रूप में देखना, भारतीय कला परंपरा में कलाकारों को समझने की मूल अवधारणा के विरुद्ध है। यह बात बिस्मिल्लाह की शहनाई से अमीर खां और बड़े गुलाम अली के गायन, अल्लारखा और अहमद जान के तबला वादन के साथ उस्ताद अलाउद्दीन के संगीत को जानने और समझने से ज्‍यादा स्पष्ट हो सकती है। इन महान संगीतकारों के जरिये भारतीय कला विकसित होती रही है, न कि हिंदू कला या मुस्लिम कला।
1. पार्वती (चित्र 12) यह अद्भुत सुंदर चित्र हुसैन की कला में रेखाओं की निरंतरता की विशेषता को बखूबी दर्शाते हुए चित्र कला में दुर्लभ तिर्यक संरचना (diogonal composition) से हमें परिचित कराता है। इस चित्र पर नग्नता और अश्लीलता का आरोप है।
2. हनुमान और रावण (चित्र 13) रावण के प्रथागत परिकल्पना में कंधे पर रखे एक सर के एक ओर चार और दूसरी ओर पांच सर हैं जो इसके संतुलन को पूरी तरह से बिगाड़ता है पर बावजूद इसके एक लंबे समय से रावण को ऐसे ही प्रस्तुत किया जाता रहा है। हुसैन ने यहां उन्हीं नौ सिरों को एकदम नये ढंग से संयोजित किया है जो बेहद महत्‍वपूर्ण है। पर इस चित्र पर भी नग्नता और अश्लीलता का आरोप है।
3. द्रौपदी (चित्र 14) द्रौपदी महाभारत ही नहीं बल्कि भारतीय गाथाओं के इतिहास के सबसे लज्जाजनक घटना के रूप चिन्हित रही है जहां एक नहीं उसके पांच-पांच पति उसके सम्‍मान की चिंता किये बगैर उसे जूए के दांव पर लगा देते हैं। और इतना ही नहीं, जूए में द्रौपदी को जीतकर दुर्योधन द्रौपदी के वस्त्र-हरण पर उतारू हो जाता है। इस चित्र में उस विपन्न नारी को हम चौपड़ जैसी बिछी देख सकते हैं। गौर करें, द्रौपदी के माथे पर सुहाग का बड़ा सा चिह्न है जो पूरे चित्र को बेहद अर्थपूर्ण बनाता है। महाभारत के महापुरुषों और पांच-पांच पतियों की उपस्थिति में एक नारी को नग्न करने की कहानी का हमने महाभारत की कथा से काटकर संसर नहीं किया है पर इस घटना पर बने एक महान चित्र को नग्न और अश्लील कहने की मूर्खता से कुछ लोग बच नहीं सके।
4. सरस्वती (चित्र 15) हुसैन के अति परिचित रेखाओं से बने इस लयात्मक चित्र में अनूठा संयम दिखता है। महज पांच रेखाओं से मोर के पंख का विस्तार यहां उल्लेखनीय है। सरस्वती के दाहिने हाथ में कमल का फूल पानी की सतह के ऊपर है जहां एक मछली भी है। यह अद्भुत चित्र अपनी संरचना के साथ-साथ रेखाओं की हुसैनी लयात्मकता के लिए निस्संदेह विशिष्ट है। यह अनावृत्त है पर समझ के किसी भी मानदंड पर इसे अश्लील नहीं कहा जा सकता।
5. लक्ष्मी (चित्र 16) यह रेखाचित्र, हुसैन की रेखाओं की खास निरंतरता के चलते हाथी पर आसीन लक्ष्मी को गणेश पर बैठी लक्ष्मी मानते हुए इसे नग्न और अश्लील चित्र के रूप में चिन्हित किया गया है।
6. दुर्गा (चित्र 17) यह चित्र उसी श्रृंखला का है जिस पर नग्न, अश्लील और आपत्तिजनक होने का आरोप है। जिन लोगों ने इस पर ऐसा आरोप लगाया है, उनकी समझदारी की विकृति इस बात से स्पष्ट होती है कि इस चित्र में दुर्गा और शेर यौनक्रिया में लिप्त हैं। हुसैन की कला में रेखाओं की विशिष्टता का यह शायद सबसे बड़ा अपमान है।
उपरोक्त सभी चित्रों को अश्लील और आपत्तिजनक कहने वालों को स्पष्टीकरण देने के उद्देश्य से या कला की रचनात्मकता के बचाव में कोई दलील पेश करने के लिए हम अपना वक्तव्य नहीं रख रहे हैं। भारतीय कला के लंबे और गौरवपूर्ण इतिहास के साथ-साथ हम मौजूदा राजनीतिक परिवेश में यकायक बदलते करवटों को समझ रहे हैं। और हम अपनी समझ को आप सब तक पहुंचाना चाहते हैं। यहां कतई आग्रह यह नहीं है कि आप हमसे अवश्य ही सहमत हों, बल्कि हम चाहेंगे आप इस पर सोचें, विचारें और समझें कि हुसैन के चित्रों पर उठायी गयी आपत्तियों का आधार न तो धर्म है और न ही कला। यह शुद्ध रूप से एक स्वार्थप्रेरित राजनैतिक पहल है जिसको समझना आज के माहौल में कला को समझने से ज्‍यादा जरूरी है।
फिर भी हम किसी के राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपनी कला परंपरा की महानता को छोटा करने का अधिकार किसी को दे नहीं सकते। कम से कम तब तक, जब तक हमारे सभी संग्रहालयों को बामियान या बाबरी मस्जिद नहीं बना दिया जाता। जब तक पुस्तकालयों में सुरक्षित इन कला इतिहासों की महत्‍वपूर्ण पुस्तकों को आने वाली पीढ़ी के हाथों से छीन नहीं लिया जाता। जब तक रचनाशीलता को कला का मूलभूत आधार मान सकना स भव रहेगा तब तक कला को कला की तरह देखने का तर्क जिंदा रहेगा।
यहां तीन उदाहरण प्रस्तुत हैं।
पहले उदाहरण में एक हिस्सा 200 ईसा पूर्व का है और दूसरा – हमारी अपनी सदी का। (देखें चित्र 18 और चित्र 15)
दूसरे उदाहरण में मथुरा कुषाण काल
(100 ईसवी) की एक मूर्ति का चित्र है और दूसरा अपनी सदी का। (देखें चित्र 19 और चित्र 17)
तीसरा उदाहरण – मथुरा कुषाण काल की कुबेर-लक्ष्मी और हराती का चित्र है और साथ में बीसवीं सदी का एक और विवादास्पद चित्र। (देखें चित्र 20 और चित्र 16)
इन तीनों उदाहरणों से भारतीय चित्रकला परंपरा की निरंतरता और मकबूल फिदा हुसैन के महत्‍व को पाठक बेहतर समझ सकेंगे।
हुसैन पर हिंदू विरोधी अश्लील होने के आरोप के साथ-साथ उनके द्वारा बनाये गये “भारतमाता” (चित्र 22) के लिए भी ऐसे आरोप लगाकर दक्षिणपंथियों ने जहां हुसैन को न केवल एक मुसलमान चित्रकार के रूप में हिंदू धार्मिक आस्थाओं के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की है, उनके द्वारा बनाये गये “भारतमाता” के विरुद्ध विवाद उठाकर उन्हें भारत विरोधी सिद्ध करने की मुहिम तेज की है।
भारतीय कला में रचनाशीलता और प्रयोगधर्मिता के पक्ष में अपने वक्तव्यों में हम ने पहले ही बहुत कुछ कहा है पर अब तक हमारी बातें शायद भारतीय कला के इतिहास तक सीमित रही है। समकालीन भारतीय कला में इस परंपरा के साथ-साथ अभिव्‍यक्ति की स्वतंत्रता, एक अटूट और महत्‍वपूर्ण निरंतरता को जिंदा रखे हुए हैं। इस मान्यता को हम कुछ महत्‍वपूर्ण समकालीन चित्रकारों की कृतियों के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहेंगे। हुसैन के “भारतमाता” के संदर्भ को एक आधार देने के लिए हम केवल सिंहवाहिनी-दुर्गा-भारतमाता की अवधारणा को विश्लेषित करते हुए कुछ चित्र यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। (पृष्ठ 41 पर देखें)
1. भारतमाता का एक कैलेंडर चित्र
(चित्र 21) हम सबके लिए एक अति परिचित निरीह-सा लगनेवाला चित्र है। यहां कलाकार की कल्पनाशीलता, निर्विवाद रूप से हिंदू देवी – वैष्णो देवी के सिंहवाहिनी रूप से प्रभावित है। इस चित्र में भारत विभाजन के बाद हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना करने वाले एक राजनीतिक दल की विचारधारा प्रतिबिंबित है, जिस दल का झंडा हाथ में लिए सिंहवाहिनी दुर्गा भारतमाता में तब्दील हो गयी है।
2. भारतमाता (चित्र 23) शिल्पगुरु अवनींद्र नाथ ठाकुर का बनाया हुआ है। ये एक संन्यासिनी रूप है और बंगाल स्कूल की अभूतपूर्व शास्त्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है।
3. अष्टभुजा दुर्गा (चित्र 24) मंजीत बावा।
4. दुर्गा (चित्र 25) अतुल डोडिया।
5. दुर्गा (चित्र 26) विकास भट्टाचार्या।
6. दुर्गा (चित्र 27) रामकुमार।
7. दुर्गा/भारतमाता (चित्र 28) अर्पिता सिंह। इन चित्रों को गौर से देखने और समझने के बाद हुसैन के विवादास्पद चित्रों को अश्लील, हिंदुओं की धार्मिक आस्थाओं पर आघात करनेवाले या भारत विरोधी नहीं कहेंगे। यह मेरा महज पाठकों से आग्रह नहीं है बल्कि अपनी समझ और तर्क से हम जो कुछ समझ सके उसे आप तक पहुंचाने की कोशिश मात्र कर रहे हैं।
यहां कुछ और बातों पर गौर करने की गुंजाइश अवश्य जान पड़ती है। भारत विभाजन की प्रक्रिया में पाकिस्तान का जन्म जिस आधारंपर हुआ था, भारत में सत्ता के हस्‍तांतरण का आधार वह नहीं था। यह राष्ट्र पहले दिन से ही हिंदू, मुसलमान, सिख और अन्य सभी धर्मों को माननेवालों के लिए समान रूप से उनका देश था – कम से कम हमारे पहले प्रधानमंत्री की धर्म निरपेक्षता की अवधारणा कुछ ऐसी ही थी। पर भारतीय हिंदू, तिलक द्वारा शुरू किये गये महाराष्ट्र में गणेशपूजा, बंगाल में बंकिम बाबू द्वारा आनन्दमठ की रचना और हमारे राष्ट्रपिता की रघुपति राघव राजा राम की आराधना जैसी अन्य तमाम बातें भारत के नये लाट, नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों से मेल नहीं खाता था। भारतीय संसदीय गणतंत्र के निर्माण और चुनावी राजनीति में आजादी के बाद से ही भाषा के नाम पर, जाति के नाम पर, इलाके के नाम पर, प्रदेश के नाम पर ध्रुवीकरण एक विचारविहीन जनविरोधी व्यवस्था के लिए जरूरी था और राजनीतिक दलों ने इस पहलू को ठोस आधार देते हुए अल्पसंख्‍यक मतों का ध्रुवीकरण करने में देरी नहीं की। जैसे – हरिजन और मुसलमान, दोनों ही अल्पसंख्‍यक के रूप में चिन्हित तो हुए पर सद्य: स्वाधीन भारत में मुसलमान एक विशिष्ट वोटबैंक माना गया। जामा मस्जिद के इमाम के इशारे पर मुस्लिम वोट किसी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में पड़ने लगे। राजनैतिक दलों ने इस अल्पसंख्‍यक वोटों को हथियाने के लिए मजार पर चादर चढ़ाने और इफ्तार पार्टियों के आयोजन जैसी तमाम सतही हरकतों में लिप्त हुए। इन सब का हिंदुस्तान के आम मुसलमान जनता की सामाजिक, आर्थिक विकास से कोई संबंध नहीं था। चुनाव और वोट को केंद्र में रखकर सभी पार्टियां जनता के शोषण के संसदीय तरीकों में पारंगत होने लगी। समय के साथ-साथ भारत की चुनावी संसदीय राजनीति का चेहरा स्पष्ट से स्पष्टतर होता चला गया। रथयात्रा, बाबरी, गुजरात से लेकर आरक्षण, सिंगुर, नंदीग्राम और तस्‍लीमा विवाद निर्विवाद रूप से इसी चुनावी संसदीय राजनीति के कुत्सित चेहरे के विभिन्न रूप हैं। हालांकि हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के प्रयास में बाबरी कांड अब तक के दक्षिणपंथियों की राजनीतिक समझ के ओछेपन को ही रेखांकित कर पायी, क्योंकि जिस तात्क्षणिक और दूरगामी लाभ के उद्देश्य से रथयात्रा कर बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, उन दक्षिणपंथियों को चुनावी लाभ के रूप में कुछ भी हाथ नहीं लग पाया था। ऐसी स्थिति में उन दलों के लिए हिंदू मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों को अपनी ओर आकर्षित करना और धर्म के नाम पर एकजुट करना, संसद में बड़ी संख्‍या में लौटने के लिए उन्हें जरूरी लगा। यहां गौरतलब है कि रथयात्रा और बाबरी मस्जिद कांड से व्यापक रूप से हिंदू मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी अप्रभावित रहा था। वर्तमान हुसैन विवाद से दक्षिणपंथियों को इस मायने में बाबरी से बड़ी उपलब्धि मिली है क्योंकि न केवल औसत उदारमना हिंदू ये कहते हुए पाये जा रहे हैं कि “हुसैन को क्या जरूरत थी हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाने की।” साथ ही कई मुस्लिम संगठनों ने भी हुसैन को यह कहकर “बिरादरी बाहर” किया है कि हिंदू धर्म के देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने का कोई अधिकार हुसैन को नहीं है।
दोनों ही स्थितियों में दक्षिणपंथियों के उद्देश्य की पूर्ति होती नजर आती है क्योंकि वे कम से कम ये तो जानते ही हैं कि भारतीय कला इतिहास परंपरा की समझ मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों को नगण्य है। और साथ ही समकालीन भारतीय चित्रकला को हमारे समाज का बड़ा हिस्सा एक बाजार की चीज मानते हैं जो केवल धनवानों के लिए ही रची जाती हैं, लिहाजा इससे भी उसका कोई लेना देना नहीं है। मनोरंजन के साधन के रूप में फिल्म, नाटक, साहित्य, संगीत, नृत्य आदि कलाओं का जो स्वरूप आज समाज में दिखता है उसके समानांतर चित्रकला को हम नहीं रख पाते हैं। ऐसी स्थिति में जनता से अलग-थलग पड़ी चित्रकला को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना, उन्हें शायद सबसे आसान लगा हो।
यह पहल शुद्ध रूप से उस चुनावी संसदीय व्यवस्था को हथियाने के लिए की गयी एक सोची-समझी साजिश है, जो साठ साल की संसद से आती सड़ांध को भी स्पष्ट कर रही है। पर हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि यह साजिश किसी कला के खिलाफ नहीं है बल्कि यह एक राजनैतिक दांव है जिसका उत्तर कला को नहीं बल्कि आम जनता की चेतना की राजनीति को देना है।
हमारा विश्वास है कि इस आलेख से हम भारतीय कला परंपरा के कुछ पहलुओं के बारे में पाठकों से रू-ब-रू हो सकें। साथ ही हुसैन विवाद पर बात करते हुए शायद यह भी सिद्ध कर सकें कि मकबूल फिदा हुसैन भारतीय कला परंपरा के महत्‍वपूर्ण कड़ी हैं। और उन्हें किसी धर्म के साथ जोड़ना भारतीय कला की उदार अवधारणाओं का विरोध करना है। अंत में इस विवाद के पीछे साजिश की परंपरा पर भी कुछ चर्चाएं जरूरी हैं इस लेख में। हम मानते हैं कि कला पर उठे ऐसे विवादों का विरोध महज एक लेख से नहीं किया जा सकता। पर यहां हम यही कहना चाहेंगे कि हुसैन के चित्रों को लेकर उठा विवाद, कला के विरोध में उठा एक मुद्दा नहीं है। यह एक घिनौनी साजिश है, जिसको ध्वस्त करने के लिए एक सुस्पष्ट राजनीतिक समझ के साथ संगठित जन-प्रतिरोध की जरूरत है।
यह लेख शायद उस दिशा में एक छोटे-से प्रयास के रूप में काम आए।
(यह लेख नीलाभ, डॉ मधु अग्रवाल और सुशील कांति के सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकता था।)
बया से...