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काम निकालने के राडियाई नुस्‍खे : सेवंती नैनन


काम निकालने के राडियाई नुस्‍खे
सेवंती नैनन

(प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ में मीडिया पर छपनेवाला सेवंती नैनन का पाक्षिक स्तंभ मीडिया मैटर्स अपनी साफगोई और गहरी पकड़ के कारण बहुचर्चित है। पर बीते 5 दिसंबर को ‘द हिंदू’ ने इस स्तंभ को बिना कारण बतलाए नहीं छापा। यह लेख नैनन के ब्लॉग द हूट से साभार हिंदी में हू-ब-हू ‘बया’ के पाठकों के सामने रखा जा रहा है।)

राडिया टेप पत्रकारिता और जन संपर्क के विद्यार्थियों के लिए पाठ्य-पुस्तक जैसा उपयोगी महत्त्व रखते हैं, आजकल इन दोनों का प्रशिक्षण एक ही संस्थान में होता है। जिस तरीके से राडिया ने काम किया वह दोनों ही किस्म के व्यवसायों में लगे लोगों के लिए अलग-अलग सबक पेश करते हैं।
आइए पहले देखते हैं कि नए पत्रकार इन टेप की बातचीतों से क्या सीख सकते हैं। आपसी प्रतिद्वंद्विता में उलझे एक जोड़ी उद्योगपति बंधु ही लोकतंत्र के हर महत्त्वपूर्ण स्तंभ को, चाहे वह सरकार हो, संसद हो,  न्यायपालिका हो या फिर प्रेस, पथभ्रष्ट कर सकते हैं। ये टेप इस बात की निर्देशिका हैं कि भारत को कौन चलाता है और उन लोगों की योजनाओं में पत्रकार कहाँ फिट होते हैं। कभी-कभार स्वयंभू तरीके से ही। जैसा प्रभु चावला—जो कि पिछले कुछ दशकों से भारत के सर्वाधिक असरदार पत्रकारों में से हैं, राडिया से कहते हैं, ‘‘देखो इन दिस कंट्री दोनों साइड को फिक्स करने की कैपेसिटी (क्षमता) है।’’
फिर वह आगे राडिया को बताते हैं कि कैसे वह मुकेश अंबानी को यह समझाने की कोशिशों में लगे हैं, लेकिन वह आदमी न तो उनके संदेशों का उत्तर देता है और न ही उनके फोन उठाता है। हम नहीं जानते कि अंतत: अंबानी को यह बात समझ में आई या नहीं कि कैसे प्रभु चावला उनकी मदद कर सकते हैं। ध्यान रखें कि जो बातचीत जारी की गई है वह बेहद चुनिंदा है।
दूसरा सबक : जो लोग वास्तव में देश को चला रहे हैं उन्हें पत्रकारों की ज़रूरत है, पर अपनी ही शर्तों पर, और वे उसकी कीमत जानते हैं।
नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत देखें:
टाटा : इस सब का खुलासा क्यों नहीं हुआ?
राडिया : रतन वो लोग मीडिया को खरीद ले रहे हैं। वे मीडिया को खरीदने के लिए अपनी पैसे की ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं। हर विज्ञापन के लिए जो वे ...को देते हैं, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मेरी मीडिया से क्या बात हुई, खासकर ‘टाइम्स समूह’ और ‘दैनिक भास्‍कर’ से। वही अग्रवाल लोग जिनसे तुम मिले थे।
टाटा : हाँ...
राडिया : वे कहते हैं, नीरा, हम जब भी उनके खिलाफ कोई नकारात्मक खबर लगाते हैं, वे लोग विज्ञापन देना बंद कर देते हैं। तो मैंने कहा कि ठीक है, फिर दूसरे भी विज्ञापन बंद कर सकते हैं...वे मीडिया पर खर्च अपने एक-एक डॉलर का हिसाब इस बात को सुरक्षित करने के लिए करते हैं कि उनके खिलाफ कोई नकारात्मक प्रचार ना हो। मीडिया बेहद लालची है...।
पहले पैरा में ‘वे’ अनिल अंबानी के लिए कहा गया है जिनका नाम इस टेपित बातचीत में आया है। उनके लिए ‘वह’ की जगह ‘वे’ क्यों इस्तेमाल है? क्योंकि उसके पास अपनी नीरा राडिया है।
तीसरा सबक : अगर आप ऊँचे स्तर पर पत्रकारिता कर रहे हों तो आपका साबका दोनों ओर के पटानेवालों से पड़ता है। यदि आप जानना चाहते हों कि भारत में आखिर चल क्या रहा है तो आपको दोनों से निपटना सीखना पड़ेगा। इस पेशे के पुराने खिलाड़ी इस बात को जानते हैं। अंग्रेज़ी मीडिया में हर वह संपादक जो ज़रा भी महत्त्व रखता है चाहे सफेद हो या गुलाबी दैनिक अखबार का या इलैक्ट्रानिक मीडिया का, सबका नाम बातचीत में मौजूद है। या तो उससे बात की गई है या फिर उसका संदर्भ इस रूप में है कि नीरा उससे मिलने वाली हैं। कभी-कभार मुकेश अंबानी के किसी बड़े अधिकारी के साथ मुलाकात के संदर्भ में भी उन नामों का जिक्र हुआ है। हर संपादक इस बात को भी समझता है कि मसलों को जानने के लिए आपको उनसे मिलना ही होगा।
नीरा के साथ मुकेश अंबानी के दाएं हाथ मनोज मोदी की बातचीत के अंश देखें:
बरखा मनोज से : ‘‘आप उन्हें मेरी शुभ·ामनाएँ दें, और आप ·भी दिल्ली आएं तो $फुर्सत में, हालाँ·ि आप·े पास फुर्सत जैसी कोई चीज नहीं, फिर भी कभी आए तो ...।’’
मनोज बरखा से : ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, आप जानती हैं मैं दिल्ली ·भी नहीं आता, ले·िन ·ल रात मैं सिर्फ इसी (?) काम के लिए आया, सिर्फ इसी काम से। ’’
बरखा मनोज से : ‘‘यह काफी मददगार रहा मनोज वास्तव में। लेकिन क्या मैं आपके साथ...’’ (फोन कट जाता है)
सिर्फ संपादक हीं नहीं, रिपोर्टरों के लिए भी यह सबक है। यदि आप टेप को ध्यान से सुनें तो आप जानेंगे कि मनाने और दबाव डालने वालों से कैसे निपटा जा सकता है। कुछ रिपोर्टर जानकारियों को इधर से उधर करते हैं। कुछ साथ लेकर चलते हैं, कुछ सिर्फ सुनते और पड़ताल करते हैं, कुछ अपने बाहुबली क्लाइंटों की मदद करना चाहते हैं या फिर कुछ ऐसे भी हैं जो राडिया को यह बताने को उत्सुक हैं कि वे मदद क्यों नहीं कर पाएँगे। कुछ इस बात की सलाह देते हैं कि उन्हीं के प्रकाश्य में कैसे रास्ता निकाला जा सकता है :
एम. के. बिल्‍कुल तटस्थ सलाह है। इसको ऐसे अखबार को दो जो इसको लीड फ्लायर कैरी करे। इसको सीएनबीसी को दो। तब ये लोग काफी भड़केंगे। अगर सीएनबीसी इसे दिन में दस बार लीड के रूप में लेता है, तो अफरा-तफरी मच जाएगी। अगर मैं संपादक होता तो रोहिणी की स्टोरी सीधे पहले पेज पर ही लगती आधे पन्ने पर सबसे ऊपर, एकदम लीड की तरह। क्या तुम्हें लगता है कि एमडी को चिट्ठी लिखी जा सकती है? सिर्फ यह कहते हुए कि हम आपको ईटी नाउ (‘इकोनोमिक टाइम्स’ का चैनल)के शुरू होने पर शुभकामना देना चाहते हैं, और इसके बाद तुम इस मुद्दे को इस तरह उठा सकती हो कि देखिए यह मसला राष्ट्रीय रुचि का है और हमें उम्मीद है कि आप इसे ले सकते हैं, आप जानती हैं, जैसा कि वाईएसआर रेड्डी ने लिखा है। ऐसा करके तुम लगाओ ना।
(एम.के.. यानी एम.के. वेणु जो फिलहाल ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ के संपादक हैं और तब ‘इकनॉमिक टाइम्स’ में हुआ करते थे)
जो लोग जनसंपर्क में भविष्य बनाना चाहते हैं, ये टेप उनके लिए पूरे किसी मैनुएल की तरह है जो बतलाता है कि क्या करें और क्या ना करें।
पहला बुनियादी सबक : पत्रकारों को खबर चाहिए और उनके मालिकों को विज्ञापन। दोनों का दोहन करना सीखें।
दूसरा सबक : पत्रकार खुद को यह भरोसा दिलवाना चाहते हैं कि वे राष्ट्रीय हितों के संरक्षक हैं। इसी लाइन को पकड़ें।
‘‘प्रभु चावला : देखो न, जब ये भाई उलझे हों तो पूरा देश लपेटे में आ जाता है।
राडिया : हाँ, यह शायद ठीक नहीं है, ना। देश के लिए तो यह ठीक नहीं।’’
और जगहों पर भी उसने इतने ही प्यार से यह बात कही है जैसे कि उसे वास्तव में देश की बड़ी चिंता हो।
‘‘सिर्फ इसलिए कि दोनों भाइयों में विवाद है, क्या इसकी  कीमत पूरा देश चुकाएगा?’’
तीसरा सबक : जानें कि प्रेस में कौन आपका दोस्त है।
‘‘हमें उन्हें सवाल देने हैं। वीर (संघवी)के साथ हम मैनेज कर सकते हैं, हम जो सवाल पूछना चाहेंगे पूछ लेंगे।’’
और इसकी समझ भी हो कि अपने क्लाइंट को किनसे दूर रखना है:
एम.के. वेणु से, जब वह इटी नाउ में थे:
‘‘वाकई वेणु। तुम अरनब को ईटी नाउ में नहीं रखना चाहते। वह बरबाद कर देगा। मैंने राहुल, रवि धारीवाल (टाइम्स समूह के सीईओ) से यह कहा भी था। कोई भी सीईओ अरनब के शो पर नहीं जाना चाहता। वीर टाइ·कून शुरू कर रहा है। मेरे सारे क्लाइंट वीर के साथ मज़े से रहते हैं।
वेणु : क्या करन थापर के साथ तुम कंफर्ट महसूस करती हो?’’
राडिया : बिल्‍कुल नहीं। वह अरनब जैसा ही है।
दबाव डालना सीखें:
‘‘तो ठीक है। तुम राहुल (जोशी) को बता दो कि जब टाटा पावर, टाटा केमिकल्स और नागार्जुन फर्टिलाइजर्स कोर्ट में मुकदमा दायर करेंगे और कुछ लिखने को होगा तो वे ईटी को नहीं देंगे। अगर वे खबर का सबसे ज़रूरी हिस्सा ही नहीं छापेंगे तो। तुम एक बार राहुल से बात कर लो—बता दो कि यह खबर तुम्हें नहीं देंगे अगर वह इस नजरिए से उसे नहीं लेना चाहते तो।’’
या
‘‘यदि तुम उसे प्रभाकर सिन्हा को दो तो क्या वह पहले पेज पर लेगा। मैं चाहता हूँ कि वह प्रमुखता से छपे। मैं दे सकता हूँ, सिर्फ तब जब मुझे यह आश्वासन मिल जाएगा।’’
आपको हर किस्म के पत्रकारों से बात करनी होगी, लेकिन छोटे पत्रकारों से गलबहियाँ करने की ज़रूरत नहीं है।
राडिया अपनी टीम में किसी से कहती है :
‘‘नयनतारा वगैरा मुझे कॉल कर रहे हैं। अब हर स्टोरी के लिए उन्हें मुझे फोन करने की ज़रूरत नहीं। उन्हें तुमको कॉल करना चाहिए।’’
जब अंग्रेज़ी मीडिया से मदद न मिल रही हो, तब हिंदी मीडिया में हाथ डालें।
‘‘तुम्हारे बीएस ने पूरा उनका पर्सपेक्टिव (नजरिया) कैरी किया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ भी ...बीएस का? हमारा पर्सपेक्टिव नहीं है, मुझे सुनना पड़ता है क्लाइंट से। ‘दैनिक जागरण’ में छपी स्टोरी की हज़ार प्रतियाँ। हर सांसद के घर पर भिजवाओ। अनुवाद करवाओ। उन्होंने बहुत ही आलोचनात्मक स्टोरी की है। स्टोरी शाम तक सबके घर में पहुँच जानी चाहिए।’’
और अंत में :  उदीयमान जन संपर्क पेशेवरों को राडिया के जानी दुश्मन टेप वाले ‘टोनी’ संभवत: एक सबक बेहतर सिखा सकते हैं: अपने लेन-देन की इतनी बातें फोन पर नहीं करनी चाहिए।
''बया'' से साभार.....

प्रतिरोध की संस्कृति पर पहरा : कृपाशंकर चौबे



लोकतंत्र में जिस तरह बहुमत का सम्मान किया जाता है, उसी तरह असहमति का अधिकार विरासत के रूप में मिलता है। असहमति ही अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देती है। असहमति यानी प्रतिरोध की गुंजाइश लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। लेकिन कई बार देखा जाता है कि जिनके पास सत्ता होती है, वे प्रतिरोध की संस्कृति को सह नहीं पाते। कदाचित इसी कारण सत्तासीन लोग लोकतंत्र के सच्चे रहनुमा नहीं रह गए हैं। आज हम देख सकते हैं कि जिन्हें लोकतंत्र का रहनुमा होना चाहिए था, वे ही उसके क्षरण का कारण बनने लगे और इसी कारण लोकतंत्र के तीनों स्तंभों- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की मर्यादा क्षत-विक्षत होने लगी है। भारत में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका में किस कदर अवमूल्यन हुआ है, इसका अंदाजा हाल के ही दृष्टांतों से लगाया जा सकता है। वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हाल ही में एटीएस (एंटी टेररिस्ट स्क्वायड) द्वारा पखवारेभर तक की गई ज्यादती कार्यपालिका के क्षरण का सबूत है तो न्यायपालिका में आए अवमूल्यन का प्रमाण विनायक सेन के मामले में किया गया न्यायिक अन्याय है और विधायिका की हालत तो यह है कि संसद का पूरा का पूरा सत्र ही नहीं चलने दिया जाता।
  जनवरी 2011 के पूरे अंतिम सप्ताह और फरवरी के पहले सप्ताह लगातार वर्धा के अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के समूचे परिसर में एंटी टेररिस्ट स्क्वायड (एटीएस) का आंतक पसरा हुआ था। उस दौरान लगातार यही एहसास होता रहा कि यहां लोकतंत्र नहीं, एटीएस का-पुलिस का राज है। परिसर का वातावरण तब सामान्य हुआ, जब केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप से विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन व अन्य के खिलाफ नागपुर एटीएस द्वारा दायर प्राथमिकी वापस लेने की खबर आई। केंद्रीय गृह सचिव गोपाल के पिल्लई ने स्त्री अध्ययन संघ की अध्यक्ष अनीता घई को आठ फरवरी 2011 को पत्र (डीओ नंबर 15011/ 14/ 2011/ एससीएसटी-डब्लू) लिखकर सूचित किया कि नागपुर एटीएस द्वारा गत 24 जनवरी 2011 को वर्धा के सेवाग्राम थाने में इलीना सेन के खिलाफ दायर प्राथमिकी वापस लेने का आदेश वर्धा के पुलिस अधीक्षक को दिया गया है। मामला तो वापस हो गया किंतु पखवारेभर तक एटीएस ने  जिस तरह परिसर को भयाक्रांत किए रखा, उस पर चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि उसने लोकतंत्र की बुनियाद पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं।  
 नागपुर एटीएस ने सेवाग्राम थाने में प्राथमिकी दायर कर इलीना सेन पर आरोप लगाया था कि वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के परिसर में 21 से 24 जनवरी 2011 तक आयोजित भारतीय स्त्री अध्ययन संघ के सम्मेलन में भाग लेने आईं विदेशी प्रतिनिधियों की जानकारी उन्होंने पुलिस से छिपाई। इलीना इस सम्मेलन की स्थानीय संयोजक थीं। क्या इसीलिए इस सम्मेलन को एटीएस ने चुनौती मान लिया था? चुनौती मान लिया था तभी तो प्राथमिकी दर्ज करने के साथ ही नागपुर एटीएस अति सक्रिय हो उठा और उसने महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के परिसर में विद्यार्थियों अध्यापकों से कड़ाई से पूछताछ शुरू की। विश्वविद्यालय के तीन शिक्षकों-प्रोफेसर मनोज कुमार, डा. रामप्रकाश यादव और डा.निशीथ राय को 28 जनवरी 2011 को सम्मन जारी किया गया। उन्हें पूछताछ के लिए थाने में तलब किया गया। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डा. के.जी. खामरे को भी थाने में बुलाकर उनसे पूछताछ की गई। सबसे ये ही सवाल किए गए-स्त्री अध्ययन संघ के सम्मेलन में कौन-कौन विदेशी प्रतिनिधि आए थे? एटीएसवालों ने परिसर में आकर विभिन्न लोगों से यह भी पूछा कि स्त्री सम्मेलन के दौरान विश्वविद्यालय परिसर में जुलूस निकालकर विनायक सेन के पक्ष में नारेबाजी क्यों की गई? एटीएस के अधिकारियों का कहना था कि इस तरह जुलूस निकालना या सरकार विरोधी नारे लगाना देशद्रोह है। एटीएस ने स्त्री सम्मेलन को लेकर विश्वविद्यालय को एक प्रश्नावली भेजकर एक साथ पचीस जानकारियां भी मांगी।
 विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नायारण राय ने महाराष्ट्र एटीएस के मुखिया से बातचीत कर परिसर में चल रही एटीएस की सक्रियता पर रोष जताया। श्री राय चूंकि उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं, इसलिए उनके विरोध का असर पड़ा। उधर, स्त्री अध्ययन संघ की अध्यक्ष अनीता घई ने केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम को पत्र लिखकर एटीएस द्वारा वर्धा में भय का वतावरण बनाने का मामला उठाया। वर्धा के पूरे परिसर में व्याप्त आतंक के इस माहौल से जब कांग्रेस नेता अमरेश मिश्र को भी अवगत कराया गया तो उन्होंने विश्वविद्यालय के अध्यापकों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय तय किया। इतनी सब कवायद के बाद एटीएस की ज्यादती तो रुक गई किंतु सवाल है कि सम्मेलन या जुलूस में शामिल अध्यापकों-विद्यार्थियों को एटीएस द्वारा प्रताड़ित किए जाने को क्या राज्य के दमन का नया रूप नहीं माना जाए? विनायक सेन के पक्ष में या सरकार के खिलाफ जुलूस निकालने या नारे लगाने पर अंकुश लगाना क्या अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का हनन नहीं है? क्या यह मानवाधिकार का हनन नहीं है? और क्या यह विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का हनन नहीं है?
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय महाराष्ट्र का अकेला केंद्रीय विश्वविद्यालय है। यहां भारत के 15 राज्यों के विद्यार्थी विभिन्न विषयों में एम.ए., एम.फिल. व पीएच.डी कर रहे हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि यदि विश्वविद्यालयों में ही प्रतिरोध की संस्कृति नहीं रहेगी, तो फिर कहां रहेगी? वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय से प्रतिरोध की संस्कृति पर, शिक्षकों और विद्यार्थियों की जुबान पर नागपुर एटीएस ने पहरा बिठाने की कोशिश क्यों की?
नागपुर एटीएस ने तो सारी हदें पार करते हुए वर्धा में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की एक अतिथि महिला सामाजिक कार्यकर्ता के कमरे पर रात दो बजे छापेमारी की, बगैर महिला पुलिस को साथ में लिए। विश्वविद्यालय ने नागपुर एटीएस को स्त्री अध्ययन संघ के सम्मेलन में भाग लेनेवाली सभी विदेशी महिलाओं के पासपोर्ट व वीसा की जेराक्स प्रति सौंपी, तो एटीएस ने नई कहानी मढ़ दी कि सम्मेलन में इससे अधिक विदेशी महिला प्रतिनिधियों ने भाग लिया और उनकी जानकारी छिपाई जा रही है। इसी आरोप को हथियार बनाकर नागपुर एटीएस ने इलीना सेन को फंसाने की कोशिश की थी। वर्ना, यदि विश्वविद्यालय में आनेवाले विदेशियों की जानकारी देना इतना बड़ा मसला था तो भारतीय स्त्री अध्ययन संघ के सम्मेलन के ठीक पहले वर्धा के महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में पांच देशों-चीन, थाईलैंड, क्रोएशिया, जर्मनी और मारीशस के अध्येता आए थे। वे तीन से 15 जनवरी 2011 तक परिसर में रहे। तब एटीएस ने कोई सक्रियता क्यों नहीं दिखाई? इसलिए कि उससे इलीना सेन का कोई लेना-देना नहीं था?
वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय के अध्यापकों-विद्यार्थियों को क्या इसीलिए भयाक्रांत किया गया कि एटीएस यदि इलीना पर कोई कार्रवाई करता तो उसके खिलाफ परिसरवासी कोई आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते? जब एटीएस ही नागरिकों को त्रस्त करने लगे और माओवाद दमन की आड़ में भय और असुरक्षा का माहौल बना दे तो क्या यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह लोकतंत्र पसंद उन सभी लोगों के लिए चेतावनी है कि वे सरकार का विरोध न करें और यदि विरोध करेंगे तो भुगतने के लिए तैयार रहें। कहने की जरूरत नहीं कि शासन की तरफ से की जानेवाली यह एक ऐसी हिंसा है जिसे कुशलतापूर्वक अमली जामा पहनाया जा रहा है। यह तो पता नहीं कि नागपुर एटीएस ने वर्धा में किसके इशारे पर काम किया पर हिंदी विश्वविद्यालय परिसर में उसके सभी कार्यकलाप अपने चरित्र में ही दमनकारी थे। उसके सारे कदम लोकतांत्रिक स्वरों का दमन करनेवाले थे।
कहने की जरूरत नहीं है कि वर्धा में नागपुर एटीएस की इस पूरी कवायद का मकसद इलीना सेन को भी एन-केन-प्रकारेण फंसाकर जेल में डाल देना था ताकि विनायक सेन के मामले में उन्हें दौड़-धूप करने का अवसर भी न मिले। इलीना को भी इसकी आशंका थी, तभी तो जनवरी के शुरू में दिल्ली में प्रेस कांफ्रेस कर उन्होंने कहा था कि उन्हें और उनकी दोनों बेटियों को बेतरह आतंकित किया जा रहा है। वे इस देश में अपने व अपने परिवार को निरापद नहीं महसूस कर रही हैं, इसीलिए किसी दूसरे उदार लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक शरण मांगने की बात सोच रही हैं। नागपुर एटीएस के कार्यकलापों ने इलीना की आशंका को शत-प्रतिशत सच साबित किया। यह बात दीगर है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के हस्तक्षेप से एटीएस को अपने लक्ष्य में सफलता नहीं मिली।
ध्यान देनेयोग्य तथ्य है कि इलीना द्वारा किसी उदार लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक शरण मांगने की बात कहने के पीछे यह गहरी टीस है कि भारत अब उदार लोकतांत्रिक देश नहीं रहा।   
इलीना सेन का परिचय महज यह नहीं है कि वे छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत द्वारा देशद्रोही करार दिए गए मानवाधिकार कार्यकर्ता व चिकित्सक विनायक सेन की पत्नी हैं बल्कि वे स्वयं एक सुपिरिचित सामाजिक कार्यकर्ता और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन की प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष हैं। पिछले दशक में  ‘संघर्ष के बीच संघर्ष के बीज जैसी महत्वपूर्ण किताब लिखकर इलीना ने भारत में स्त्री विमर्श को नई ऊंचाई दी थी
बहरहाल, वर्धा में कार्यपालिका की ज्यादती के दृष्टांत के बाद न्यायपालिका का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि विनायक सेन के प्रति हुए न्यायिक अन्याय के खिलाफ देशभर में प्रतिरोध हुआ। देश में अनेक लोग हैं जो मानते हैं कि महज चिट्ठी पहुंचाने या कम्युनिस्ट साहित्य रखने के कारण विनायक को देशद्रोही करार दिया जाना न्यायिक अन्याय है। इसीलिए विनायक को सुनाई गई सजा को लेकर देशभर में बेचैनी है। जिस विनायक सेन ने पचीस वर्षों तक एक चिकित्सक की भूमिका के अलावा आदिवासियों को कुपोषण व गरीबी से मुक्त करने के लिए रचनात्मक कार्य किया, पीयूसीएल के पदाधिकारी के नाते मानवाधिकारों के लिए लड़ाई की, उनसे छत्तीसगढ़ सरकार इसलिए चिढ़ी हुई थी क्योंकि उन्होंने सलवा जुडुम अभियान के तहत 640 गांवों के आदिवासियों के विस्थापन का तीब्र विरोध किया था। जिस विनायक को 140 देशों की अंतर्राष्ट्रीय ज्यूरी ने 2008 में स्वास्थ्य व मानवाधिकारों के लिए जोनेथम मन अवार्ड के लिए चुना था, वह साजिश के तहत जेल में डाल दिया गया है। विनायक सेन का क्या यही प्राप्य था? विनायक की तरह स्त्री अधिकारों के लिए लड़नेवाली इलीना सेन को भी फंसाने की जो साजिश एटीएस द्वारा रची गई, इस भांति सामाजिक कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ा जाना क्या लोकतंत्र के लिए शर्मनाक नहीं है?
 रही संसदीय लोकतंत्र की बात तो संसद का पिछला शीतकालीन सत्र लगभग कोई काम किए बगैर जिस तरह खत्म हुआ, वह विधायिका के अवमूल्यन का क्या अभूतपूर्व दृष्टांत नहीं है?   संसद के दोनों सदनों और राज्यों के विधानमंडलों में मूल्यवान समय और धन की बर्बादी निकट अतीत में भी होती रही है और देशवासी पहले भी विधायिका के अवमूल्यन के साक्षी होते रहे हैं किंतु संसद का कोई पूरा का पूरा सत्र ही अचल कर दिया जाए, यह विरल राजनीतिक परिघटना है। कहना न होगा कि चौबीस दिनों का शीत सत्र प्रायः नहीं चलने देने के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही जनता का विश्वास उठने का खतरा बढ़ा। आम जनता द्वारा दिए जानेवाले कर से जो धन आता है, उसी से संसद चलती है, सदन को नहीं चलने देकर उस धन की बर्बादी क्या राष्ट्रीय अपराध नहीं है? संसद की इस तरह की अचलावस्था क्या अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में कभी स्वीकार की जाती? 2 जी स्पेक्ट्रम का घोटाला निश्चय ही बड़ा मामला है और पूरा देश चाहता है कि सच्चाई सामने आए  और दूध का दूध और पानी का पानी हो और कार्पोरेट घरानों के हाथ में संसदीय लोकतंत्र को गिरवी नहीं रहने दिया जाए लेकिन क्या देश के सामने सिर्फ यही मसला है? जनहित के दूसरे मामले नहीं हैं? उन मामलों की अनदेखी क्यों की गई? संसद जब चलने दी जाएगी तभी तो उन मामलों पर भी बहस होगी। देश के मतदाताओं ने निम्न सदन में जिन्हें वोट देकर भेजा है, उनकी दूसरी बुनियादी समस्याओं और वाजिब मांगों के प्रति सांसदों की उदासीनता किस दिशा की तरफ संकेत करती है? संसद चूंकि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की केंद्रीय संस्था है इसीलिए जनता की आवाज को अभिव्यक्त करने और उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी उसे दी गई है। उसे कानून बनाने, देश की विधि-व्यवस्था पर अंकुश रखने, कार्यपालिका को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने और जरूरी होने पर संविधान में संशोधन करने का अधिकार दिया गया है। इन्हीं अधिकारों के कारण प्रशासन का पूरा तंत्र उसी के चारों तरफ घूमता है। ऐसे में यदि संसद नहीं चलने दी जाती तो प्रशासन के पूरे तंत्र के चरमराने का ही खतरा नहीं पैदा होता?  संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों के प्रभावी ढंग से काम नहीं करने देने से क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि सांसद अपने ऊपर सौंपी गई भूमिकाओं का निर्वाह करने से परहेज कर रहे हैं? एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जन प्रतिनिधि यदि अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों और भूमिकाओं का पालन नहीं करेंगे तो संसद या विधानमंडल जनता के मंच के रूप में कैसे उभरेंगे?  देखा तो यह जाता है कि जनता के बुनियादी सवालों के बजाय अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए संसद के भीतर गतिरोध पैदा करने के लिए  कई वरिष्ठ सांसद तक आकुल-व्याकुल हो उठते हैं। क्या वैसे जन प्रतिनिधियों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे हाशिए के लोगों के हितों के लिए लडेंगे?
कहना न होगा कि संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं व विधान परिषदों को जब तक आम आदमी के लिए पूरी तरह प्रासंगिक नहीं बनाया जाता, तब तक यह सवाल हमारे सामने खड़ा होता रहेगा कि हम संसदीय लोकतंत्र के कितने काबिल हैं? यदि काबिल रहते तो पिछले छह दशकों के संसदीय लोकतंत्र को वांछित नतीजे मिल चुके होते। तथ्य तो यह है कि जनता की बुनियादी जरूरतों को हल करने का मकसद अब भी पूरा नहीं हो पाया है। वैसे आज देश के सामने संसदीय लोकतंत्र के पूरी तरह योग्य बनने की जो चुनौती है, उससे देश के आम नागरिक ही निपटेंगे, नेता नहीं। ये वही आम नागरिक हैं जिनके बारे में कुलीन वर्ग मानता था कि ये तो लोकतंत्र का तात्पर्य तक नहीं जानते। ये ही आम जन लोकतंत्र की रक्षा के लिए हमेशा आगे आते हैं। ये आम जन जानते हैं कि हमारे सामने संसदीय लोकतंत्र का कोई बेहतर विकल्प नहीं है और इसीलिए इसे अक्षुण्ण रखने, बल्कि उसे निरंतर मजबूत बनाने के लिए वे निरंतर सजग रहते रहे हैं। उसकी इस सजगता का प्रमाण लोकसभा के अब तक हुए पंद्रह चुनावों में छह बार सत्ता परिवर्तन के रूप में मिल चुका है। लोकतंत्र की ताकत यह है कि जो मताधिकार सर्वहारा को मिला है, वही अमीर को। इस समानता की अवधारणा पर ही लोकतंत्र की बुनियाद टिकी है। 
वाद-विवाद और संवाद से ही लोकतंत्र चलता है। विरोधी मत को उचित मान देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत ही यही है कि वह विरोधी विचार को सहने की शक्ति देता है और विविधता को संरक्षण देता है। विरोधी मत को नहीं सह पाना असहिष्णुता कहलाती है जिसकी लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होती। अनौचित्य को टोकना जन प्रतिनिधियों का ही नहीं, वरन हर जागरुक नागरिक का भी फर्ज है, पर टोकने का तरीका, विरोध दर्ज करने का तरीका भी शिष्ट होना चाहिए। सत्ता पक्ष व विपक्ष के सांसदों से यही अपेक्षा रहती है कि वे तमाम विरोधों और वाद-विवाद के बावजूद संसदीय सौजन्यबोध व राजनीतिक शिष्टाचार को कायम रखेंगे। किंतु अक्सर वे इस पर खरा नहीं उतरते। यदि यह संसदीय सौजन्यबोध कायम रहता तो न संसद के शीतकालीन सत्र को अचल नहीं किया जाता न ही संसद का विशेष सत्र बुलाने की प्रणव मुखर्जी की पेशकश ठुकराई जाती। आज संसद के अवमूल्यन का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि अब डेढ़ सौ दिन की जगह संसद पचास दिन भी नहीं चलती।
इसे नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह विपक्ष को दूरसंचार घोटाले की जांच संयुक्त संसदीय समिति से कराने की मांग करने का अधिकार है, उसी भांति उस मांग को अस्वीकार करने का अधिकार सरकार को है। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि देश की सबसे बड़ी पंचायत को अचल ही कर दिया जाए। यूपीए की पहली सरकार के कार्यकाल के दौरान भी विपक्ष ने चौदहवीं लोकसभा में लंबे समय तक गतिरोध पैदा किया था। अभी विपक्ष के लिए क्या यह उचित नहीं था कि वह संसद के दोनों सदनों में 2 जी स्पेक्ट्रम मामले के सभी पहलुओं समेत दूसरे प्रासंगिक मुद्दों पर भी बहस करता?  गंभीर बहस के प्रति अधिकतर जनप्रतिनिधियों की अरुचि का कारण क्या है? गंभीर बहस के प्रति अधिकतर सांसदों की अरुचि अब किसी से छिपी बात नहीं है। संसद के दोनों सदनों में प्रश्न काल और शून्य काल के बाद सदस्यों की संख्या घटने लगती है। विशेष उल्लेख काल कई बार कोरम के अभाव में स्थगित करना पड़ता है। इस मामले में वैसे लोकतंत्र का चौथा खंभा मीडिया भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता। संसद में दूरगामी और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर होनेवाली चर्चाओं को मीडिया में ढंग से कवरेज नहीं मिलता जबकि कतिपय सांसदों के उच्छृंखल आचरण को प्रमुखता से प्रकाशित-प्रसारित किया जाता है। सवाल पूछने के लिए पैसे लेने, सांसद निधि के दुरुपयोग के खुलासे और सदन में नोटों की गड्डी पेश करने से पहले ही कलंकित हो चुकी संसद को और ज्यादा अवमूल्यन से बचाने का यही रास्ता है कि जनप्रतिनिधियों को उनके आचरण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए और राजनीति में भ्रष्टाचार, अपराधीकरण व सांप्रदायिकरण से लड़ने का एक तरीका ईजाद किया जाए। सांसदों को यह बोध भी कराया जाए कि संसद सुचारु रूप से चलेगी, तभी वह जनता के हित में काम कर सकेगी। 
(''बया'' जनवरी-मार्च, 2011 से...)