बया की पाती
धरोहर के सामने
जब हम अपने किसी रचनाकार को उनकी जन्म सदी पर याद करते हैं तब निश्चय ही धरोहर के सामने खड़े होते हैं। तब उनका समग्र लेखन हमारे लिए मूल्यवान दस्तावेज़ की तरह संग्रहणीय और प्रेरणीय हो जाता है। ऐसे अवसरों पर स्मरण की औपचारिकता निभाकर भूल जाने की घटनाएँ आम रही हैं, लेकिन निश्चित रूप से इसका लाभ नए लेखकों, पाठकों को मिलता है। अक्सर हम में से ढेर सारे ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने अग्रज रचनाकारों में से जिनको छिटपुट या कम पढ़ा है, वे ऐसे वर्ष में मुकम्मल तौर पर उन्हें पढऩे की कोशिश करते हैं। यह पाठ-अनुभव नितांत पूर्वाग्रह रहित और लगभग टिकाऊ किस्म का हो सकता है। अमूमन इस मुकाम तक आते-आते ऐसे रचनाकारों की रचनावली तो आ ही जाती है, उनपर टुकड़े-टुकड़े में ही सही, व्यापक विचार-विमर्श भी हो चुका होता है। ऐसे में हम उनसे जुड़ी अपनी खण्डित धारणा को एक शक्ल तो दे ही सकते हैं, उनके रचनात्मक उद्देश्यों की सार्थकता और प्रासंगिकता समझ और पहचानकर अपने समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए उनसे औजार और हथियार भी पा सकते हैं।
संयोग से यह ऐसा ही वर्ष है। इस वर्ष शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, फैज अहमद फैज, अज्ञेय और नागार्जुन की जन्मशती पर विभिन्न तरह का आयोजन चारों तरफ शुरू हो चुका है। इस अंक में हम शमशेर और केदार जी पर विशेष सामग्री दे रहे हैं। आगे बाकी रचनाकारों पर भी हम विशेष सामग्री देंगे। यहाँ हमारा विनम्र आग्रह सिर्फ इतना है कि इसको स्मरण की औपचारिकता न समझी जाए।
जनकवि केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर दोनों की रचनाओं का संबंध हमारे समय और समाज से है। इनकी रचनाएँ हमें अपने समय की चुनौतियों को समझने में सहायक होंगी। इसलिए हमारा आग्रह है कि इन्हें स्मरण करने से ज़्यादा इनकी मूल रचनाओं के पाठ पर ज़ोर दिया जाए।
इस अंक में शमशेर और केदार जी पर प्रस्तुत सामग्री के संयोजन में वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई और आलोचक अशोक त्रिपाठी का हमें विशेष सहयोग मिला। इन सामग्रियों के अलावा रचनाओं का खण्ड पहले की तरह ही है। वरिष्ठ रचनाकार गंगा प्रसाद विमल और चित्रकार अशोक भौमिक की यादगार लंबी कहानियाँ हों या महेश दर्पण, प्रकाश कान्त, रामदेव सिंह आदि की कहानियाँ—ये हमारे जेहन में टिकने वाली अपनी माटीपानी की रचनाएँ हैं। सुपरिचित कवि एकान्त श्रीवास्तव, निलय उपाध्याय, हरिओम राजोरिया, सुरेश सेन निशांत आदि के साथ ही कई ऐसे युवाओं की ताज़ा कविताएँ हैं जो हमारे समय की चिंताओं से हमें जोड़ती हैं।
इसी अंक में प्रस्तुत उपन्यास 'भूलन कांदा’ सुपरिचित कवि संजीव बख्शी का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास के बारे में इतना कहना ज़रूरी लग रहा है कि यह उन आदिवासी समुदाय के जीवन पर केंद्रित है जिनकी मार्फत अभी जल-जंगल-ज़मीन पर बहस ज़रूरी हो गया है। जहाँ-तहाँ आज ये मारे जा रहे हैं और जंगल छोड़ दर-ब-दर भटकने को अभिशप्त हैं, लेकिन मीडिया के लिए यह कोई खबर नहीं है क्योंकि सत्ता इनकी पहचान एक खास सोच से जोड़कर करती है। 'भूलन कांदा’ पढ़कर आप खुद विचार करें कि क्या सचमुच यह समुदाय 'अपराधी’ हो सकता है? ताबड़तोड़ विकास के बजट में इसका कोई हिस्सा नहीं?
बहरहाल, इसी विषय पर केन्द्रित होगा 'बया’ के अगले अंक का विचार-खण्ड।
इस अंक में भीतर के पन्नों पर सारे चित्र युवा चित्रकार पूनम किशोर के हैं। पूनम पिछले दस-बारह सालों से पेंटिंग के क्षेत्र में सक्रिय हैं। तमाम महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं और कई पुस्तकों के आवरण पर इनके चित्र आए हैं। कई सम्मानों के साथ ललित कला अकादमी का स्टेट अवार्ड और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के फेलोशिप इन्हें मिले हैं। इस वर्ष का ललित कला अकादमी का गढ़ी फेलोशिप भी। पिछले कुछ वर्षों से बच्चन की 'मधुशाला’ पर काम कर रही हैं और इन चित्रों की प्रदर्शनी की तैयारी में लगी हैं।
'बया’ के प्रकाशन का यह पाँचवाँ साल है। इस बीच ढेर सारी परेशानियों के बावजूद पाठकों के आग्रह को ध्यान में रखते हुए हमने इसे त्रैमासिक किया। इसकी निरंतरता के पीछे निश्चय ही सबसे बड़ा संबल लेखक-पाठक वर्ग का है जो पत्रिका से पुस्तक प्रकाशन तक हमारे घर के सदस्य की तरह सहयोग देते रहे हैं। इसलिए उनसे हम अपनी परेशानियाँ भी साझा करना चाहते हैं।...
मित्रो! हमारा संसाधन बहुत ही सीमित है। न कोई बड़ी पूँजी, न कोई फाइनेंसर। यहाँ काम करने वाले लोग भी सीमित हैं। यही कारण है कि कई बार (इस बार भी) 'बया’ का अंक विलंब से आया और यही कारण है कि पुस्तक प्रकाशन के संदर्भ में ढेर सारे लेखकों के आग्रह चाहकर भी हम स्वीकार नहीं कर पाते हैं। कारण साफ है, अपनी क्षमता से अधिक भार लेने पर स्थिति डाँवाडोल हो जाएगी। हिंदी में पुस्तकों की बिक्री की स्थिति किसी से छुपी नहीं है।... विनम्र निवेदन कि पुस्तकों की पांडुलिपि भेजने से पहले एक बार बातचीत कर स्थिति जान लें (अनामंत्रित पांडुलिपियों की वापसी हमें परेशानी देती है)।...
इस विचार मंच को सबल बनाने के लिए 'बया’ की वार्षिक/आजीवन सदस्यता ले सकते हैं और अपनी पसंद की पुस्तकें भी खरीद सकते हैं। सहयोग-भाव की अपेक्षा है। यह मंच व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक प्रयास का प्रतिफल है।
बया के नए अंक से प्रस्तुत शमशेर पर केन्द्रित अरुण आदित्य का लेख और सुपरिचित कवि एकान्त श्रीवास्तव की पांच कविताएं
कुछ बातें टूटी हुई, कुछ बिखरी हुई
अरुण आदित्य
ज़्यादातर लोग (अब तक के अभ्यासवश) अपने समाधान पाने के लिए सुगम से सुगमतर रास्तों की ओर उन्मुख होते हैं, पर हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में होनी चाहिए, क्योंकि प्राणवंत चीज़ें इसी तर्ज पर चलती हैं।
—राइनेर मारिया रिल्के
कई लोगों को शिकायत है कि शमशेर सहज दिखते-दिखते अचानक दुरूह हो जाते हैं। इसी तरह की शिकायत मुक्तिबोध को लेकर भी की जाती है। यह दुरूह होना क्या है? एक टेढ़ी-मेढ़ी, ऊबडख़ाबड़ पगडंडी किसी को दुरूह लग सकती है, जबकि एक सीधी सपाट पक्की सड़क सरल दिखती है। ज़रा इनके सृजन के उत्स देखिए। पगडंडियाँ लोगों की आवाजाही से सहज ही बन जाती हैं, जबकि पक्की सड़कें बनानी पड़ती हैं। पगडंडी का टेढ़ामेढ़ापन, ऊबडख़ाबड़पन उसकी दुरूहता नहीं बल्कि सहजता है, और इसी में उसका सहज सौंदर्य है, जबकि पक्की सड़क की सीधी-समतल सरलता कृत्रिम है। और सिर्फ सौंदर्य की ही बात नहीं है, गंतव्य का भी सवाल है। सड़क जहाँ आपको छोड़ देती है, पगडंडी वहाँ से आगे ले जाती है। पगडंडियाँ जिन दुर्गम जगहों तक ले जाती हैं, पक्की सड़क से वहाँ पहुँच ही नहीं सकते। शमशेर का अपराध यह है कि ऐसी जगहों की तलाश में वे पक्की सड़क पर चलते हुए अचानक किसी पगडंडी पर मुड़ जाते हैं। अगर आप सरपट सड़क के अभ्यस्त हैं तो इसमें कवि का क्या कुसूर? जब तक हमारी आस्था दुर्गम के पक्ष में नहीं होगी हमें शमशेर या मुक्तिबोध के सहज सृजन की पगडंडियाँ दुरूह ही लगती रहेंगी।
जब तुम तन्हाई में नाउम्मीद हो जाओ
तो यार के साए तले खुरशीद हो जाओ
फारसी के प्रसिद्ध कवि मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी के इस शेर में शमशेर के जीवन, दर्शन और सृजन को निबद्ध किया जा सकता है। यार के साए तले आमतौर पर लोग शीतल-मंद बयार हो जाना चाहते हैं, लेकिन शमशेर का प्यार उन्हें खुरशीद यानी सूरज जैसा ओज, तेज, तपिश और रोशनी देता है। सूरज, जिसकी किरणों के भास्वित कण उनकी तनहाई और तंगहाली के अंधेरों को भी खुशी से दिपदिपा देते हैं—
खुश हूँ कि अकेला हूँ,
कोई पास नहीं है—
बजुज एक सुराही के
बजुज एक चटाई के
बजुज एक ज़रा से आकाश के
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर
और सिर्फ अभाव में खुश रहने का ही सवाल नहीं है, उससे भी बड़ा सवाल है प्रेम की ताकत पर भरोसा। मुहब्बत में फना हो जाने के किस्से तो तमाम हैं, लेकिन तन्हाई और नाउम्मीदी के बीच जिसमें यार के साए तले खुरशीद हो जाने का आत्मविश्वास हो, वही कह सकता है—
जब करूँगा प्रेम/पिघल उठेंगे
युगों के भूधर/उफन उठेंगे /सात सागर।
किंतु मैं हूँ मौन आज
शमशेर के यहाँ बोलने से ज़्यादा मौन का महत्त्व है। और जब वे मौन न हों तो भी मितकथन में यकीन करते हैं। तुलसीदास के अरथ अमित अति आखर थोड़े की तर्ज पर। उन्हें पता है कि अंतराल भी एक अभिव्यक्ति है। इसीलिए वे शब्दों और वाक्यों के बीच अंतराल छोड़ देते हैं। और जो चीज़ छूट गई है, या छोड़ दी गई है, उसका भेद वक्ता को नहीं, बात को ही खोलना है, भेद खोलेगी बात ही। पर इस भेद तक पहुँचने के लिए पाठक को बात की तह तक जाना होगा। इस तरह पाठक को भी शमशेर अपने खेल में शामिल कर लेते हैं कि आओ इस कविता तक पहुँच पाना है तो तुम भी थोड़ी मशक्कत करो।
बात बोलेगी हम नहीं। यह सिर्फ चार शब्द नहीं हैं, कविता का एक दर्शन है। पर कैसे बनती है वह बात, जो वाकई बोलती है। शमशेर इसका खुलासा नहीं करते, उनकी कविता ज़रूर इसकी तस्दीक करती है। लेकिन इसके कुछ सूत्र रिल्के के एक गद्यांश में मिलते हैं, 'कविता मात्र आवेग नहीं, अनुभव है। एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक और वस्तुएँ देखनी-जाननी चाहिए। नन्हें फूलों के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलट कर देखने का आस्वाद। औचक के मिलन। कब से प्रस्तावित विछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अबूझे रहस्य। ...नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए—इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनंत धीरज। ... जानते हुए कि इस बार जब वे लौटकर आएँगी तो यादें नहीं होंगी। हमारे ही रक्त, भाव और मुद्रा में घुल चुकी अनाम धपधप होगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूटकर किसी भी घड़ी बोल देना चाहेगी अपने आप। हाँ, इसी तरह बिल्कुल इसी तरह आती है शमशेर की कविता। जिसके बारे में वे कह सकते हैं कि बात बोलेगी हम नहीं। यह कवि की गर्वोक्ति नहीं, विनम्रता है कि उसके पास जो कुछ है सब कविता की गठरी में बांध दिया है, उसके पास बताने या दिखाने को और कुछ नहीं है।
शमशेर की कविता मुझे अक्सर किसी वेगवती नदी की धार जैसी लगती है। इसके किनारे बैठकर सुनो, कल-कल का अनूठा संगीत सुनाई देगा। इसमें उतर जाइए, जोरदार थपेड़े आपके मन की परतों को हिलोर देंगे। इसकी लहरों में जो लय है, वही उस कविता की लय है। और जिस तरह बेगवती नदी के प्रवाह में जगह-जगह भँवर बन जाते हैं, जिनमें आकर लहरें बिला जाती हैं, उसी तरह शमशेर की कविता में भी अनेक भँवर हैं जहाँ उनकी लय, क्रम सब भंग हो जाती है। इस भँवर को समझे बिना शमशेर की कविता को नहीं समझा जा सकता है।
पर इस संगीत और मधुरता और लय और लयभंग को ही शमशेर की कविता समझ लेना उस वेगवती नदी की सामर्थ्य के प्रति असम्मान होगा। इस संगीतमयी धार में इतना आवेग है कि यह यथास्थिति के कगारों को निरंतर काटती चलती है।
अनेक बड़े लेखकों को पढ़ते हुए बार-बार यह प्रश्न सामने आता है कि कला और अंतर्द्वंद्व के बीच क्या कोई अन्योन्याश्रित संबंध होता है। गहरी रचनाएँ गहरे अंतर्द्वंद्व से जन्म लेती हैं या फिर कला के शिखर की ओर चढ़ते हुए कलाकार के अंतर्द्वंद्व और गहरे होते जाते हैं। शमशेर के अंतर्द्वंद्व इतने गहरे हैं कि कई बार पाठक को भ्रम भी हो सकता है कि असली शमशेर कहाँ हैं। एक जगह वे कहते हैं—
मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल जीवन;
कण-समूह में हूँ मैं केवल/एक कण।
पर दूसरी जगह वही शमशेर काल से होड़ लेते हुए कहते हैं—
मैं कि जिसमें सब कुछ है...
क्रांतियाँ, कम्यून/कम्युनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवंत वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।
अब आप यह मत कहिए कि इन दोनों में से असली शमशेर किस 'मैं’ में रहते हैं। दरअसल दोनों 'मैं’ के बीच जो अंतर्द्वंद्व है, शमशेर उसी का नाम है।
शमशेर ने तुलसी की तरह कोई विनय पत्रिका नहीं लिखी, लेकिन उनकी अनेक रचनाएँ पढ़ते हुए तुलसी का विनत भाव याद आता है—
कुशल कलाविद् हूँ न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूँ प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूँ प्यार।
शमशेरियत देखिए कि एक पंक्ति में वे अपनी दीनता का विनम्र बयान कर रहे हैं तो अगली पंक्ति प्यार का उद्घोष करने लगती है। उनके 'दैन्यम्’ के साथ 'पलायनम्’ की तुक नहीं बनती है। दरअसल उनका 'दैन्यम्’ भी 'कोअहम्’ को जानने का एक आलंब है।
कण-समूह में हूँ मैं केवल/एक कण।
—कौन सहारा!
मेरा कौन सहारा!
अपने को कण समूह का महज एक कण समझने वाले शमशेर को यह भान भी है कि वह कण कोई साधारण कण नहीं है। वह जीवित कण-किरण है:
कन किरन जीवित, एक, बस।
एक पल की ओट में है कुल जहान।
यह भान ही उनके दैन्य भाव को तुलसी से अलग करता है। जब वे 'मेरा कौन सहारा’ जैसा सवाल करते हैं तो भी उन्हें यह पता होता है कि कोई ईश्वर उन्हें सहारा देने वाला नहीं है। तुलसी की तरह वे अपने दैन्य का बखान तो करते हैं, लेकिन अपनी दीनता के बरक्स किसी सर्वशक्तिमान को खड़ा नहीं करते। वे तो उसे अपने से भी ज़्यादा निरीह समझते हैं:
तूने युद्ध ही मुझे दिया
प्रेम ही मुझे दिया क्रूरतम कटुतम
और क्या दिया
मुझे भगवान दिए कई-कई
मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह !
अपनी विशिष्ट संवेदना, स्पष्ट सरोकार के अलावा शमशेर का महत्त्व इसलिए भी है कि वे भाषा को कुछ नए शब्द, नई अभिव्यक्तियाँ नए बि ब देते हैं। बेठोस जैसा शब्द, उनसे पहले मुझे कहीं और देखने को नहीं मिलता। एक नीला आईना बेठोस-सी यह चाँदनी और अंदर चल रहा हूँ मैं। उसी के महातल के मौन में। चाँदनी के लिए बेठोस नीला आईना का बिम्ब शमशेर ही सोच सकते हैं। उनके बिम्ब-विधान में अनूठेपन के एक से एक उदाहरण हैं। महुए की लाल-लाल कोपलों के लिए वे सुर्ख दिए का बिम्ब लाते हैं-
यह अजब पेड़ है जिसमें कि जनाब
इस कदर जल्द कली फूटती है
कि अभी कल देखो
मार पतझड़ ही पतझड़ था इसके नीचे
और अब
सुर्ख दिये, सुर्ख दियों का झुरमुट।
सुर्ख दियों का झुरमुट आशा की लौ का झुरमुट है। शमशेर की कविता में जहाँ नैराश्य के घने अंधेरे हैं, वहीं इस तरह आशा के तमाम झुरमुट भी हैं—
कुहास्पष्ट हृदय-भार, आज हीन
हीनभाव, हीनभाव
मध्यवर्ग का समाज, दीन
किन्तु उधर/पथ-प्रदर्शिका मशाल
कमकर की मुटठी में—किन्तु उधर
आगे-आगे जलती चलती है
लाल-लाल
सुर्ख दिए या लाल मशाल के बिम्ब सायास नहीं हैं। यह उनकी अपनी जीवनदृष्टि से उपजे बिम्ब हैं।
शमशेर प्रकृति और सौंदर्य के अनन्यतम कवि हैं। एजरा पाउंड और टीएस इलियट से प्रभावित रहे शमशेर के कलागत आग्रह अत्यंत प्रबल हैं, परंतु वे कलावादी नहीं हैं। उनकी कविता में प्रकृति और सौंदर्य से जुड़े बिम्बों की अद्भुत छटा है, पर कभी भी उनका ध्यान अपने सरोकार से नहीं हटा है। उनकी एक चर्चित कविता है सूर्योदय। इस कविता में प्रात-नभ के लिए वे बिम्बों की झड़ी लगा देते हैं—जैसे बहुत नीला शंख, जैसे राख से लीपा हुआ चौका, जैसे थोड़े से लाल केसर से धुली हुई काली सिल, जैसे किसी ने स्लेट पर लाल खडिय़ा मल दी हो, जैसे कि नीले जल में कोई गौरवर्णी देह झिलमिला रही हो। इतने सारे बिम्बों से एक खूबसूरत जादुई सौंदर्य रचने के बाद कविता की अंतिम पंक्तियों में वे यथार्थ का झटका देते हैं—
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है
इस सूर्योदय के साथ ही वे हमें उषा-सौंदर्य के उस जादू से बाहर यथार्थ की रोशनी में ला खड़ा करते हैं कि जिसमें हम समय को साफ-साफ देख सकें। जादू रचने और तोडऩे का खेल शमशेर की कई कविताओं में देखा जा सकता है। शमशेरियत की खूसूसियत ही यही है कि इतने कला-आग्रह के बावजूद उनके सरोकार कभी कला के किले में कैद होकर नहीं रह जाते। वे कला को अंगवस्त्र की तरह नहीं अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं, ताकि काल से होड़ ले सकें। और वे ऐसा कर पाते हैं क्योंकि उनके यहाँ कितनी नावों में कितनी बार जैसा कोई असमंजस नहीं है। वे एक ही नाव के सवार हैं और उन्हें अपनी दिशा पता है। और इस दिशा पर कला का कोई कुहासा नहीं है—
वाम-वाम वाम दिशा
समय साम्यवादी।
पाँच कविताएँ : एकान्त श्रीवास्तव
निशान
इस कच्ची सड़क से
गुज़री होंगी बैलगाडिय़ाँ
धान से लदी हुईं
धूल से छूटे हैं पहियों के निशान
गाडिय़ों से झरते गए होंगे दाने
दानों के लिए उतरा होगा
चिडिय़ों का झुण्ड
धूल में छूटे हैं उनके पंजों के निशान
पैदल चलता एक बूढ़ा किसान ठिठकता है
आत्मीयता से चीन्हता हुआ
कि नगरइल चिडिय़ा के पाँवों के
निशान हैं ये
तभी उन्हीं निशानों से
धड़धड़ाती गुज़र जाती हैं
नगर के शोहदों की मोटर साइकिलें
सड़क पर रोज़ होती हैं दुर्घटनाएँ
जो कहीं बच नहीं पाते
पुस्तकों में न छायाचित्रों में
छूट जाते हैं स्मृतियों में जस के तस
वही निशान
यहाँ रोज़ होती हैं दुर्घटनाएँ।
ग्राण्ड ट्रंक रोड
इसे सोलहवीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने बनवाया था
मगर बीसवीं शताब्दी में सन् सैंतालीस में इसे बीच से काटकर
दो भागों में बाँट दिया गया
एक भाग जो रह गया एक देश में धड़ की तरह छटपटाता
मगर जिसका हृदय धड़कता रहा दूसरे भाग के लिए
दूसरा भाग जो चला गया दूसरे देश में
लगातार पुकारता रहा अपनी ही देह को
आप अगर स पूर्ण ग्राण्ड ट्रंक रोड पर करना चाहते हैं यात्रा
तो बहुत जोखिम है
मुमकिन है आधी यात्रा में ही आप गोली खाकर गिर पड़ें
क्योंकि आपको दो देशों की सीमा चौकियों से होकर गुज़रना पड़ेगा
इकबाल अहमद* की शायद यह अंतिम इच्छा रही होगी
कि बनाई जाए कोई ऐसी ग्राण्ड ट्रंक रोड
जिसके किनारे पड़ते हों दुनिया के सारे देश
जो केवल नगरों से नहीं
लोगों के दिलों से होकर भी गुज़रती हो
जो दिन में ऋतुओं की तरह महकती हो
और रात में झिलमिलाती हो आकाशगंगा की तरह
जो समुन्दरों के पार भी उड़कर पहुँचती हो।
* इकबाल अहमद (जन्म 1934 बिहार, निधन अप्रैल, 1999) प्रख्यात विद्वान और एक्टिविस्ट। 'उद्भावना’ अंक 53-54 में इकबाल अहमद के साक्षात्कार में एक प्रश्न का उत्तर पढऩे के बाद।
गिरस्ती
एक तरफ फावड़ा और कुदाल रखकर
उसका पति सुस्ता रहा था
एक ज़ंगखाई संदूक खोलकर पॉलीथिन से
उसने दो टमाटर निकाले
दो हरी मिर्च और तीन आलू
एक छोटी-सी मूली के दो टुकड़े कर
उसने दोनों बच्चों को दिए
जो संदूक खुलता देख खेलना छोड़
दौड़कर वहाँ आ गए थे
एक बोरे में उनकी गिरस्ती भरी थी
और लोहे की पुरानी बाल्टी में
पानी कुँए का
संसार के कोलाहल से दूर और बाहर
कुसुम के पेड़ के नीचे
यह एक श्रमिक दम्पति का संसार था
फिर देखते-देखते
तीन पत्थरों के चूल्हे पर चढ़ी देकची में
कुछ पकने लगा।
कोई नहीं जानता था
कि जो पक रहा था
वह उनका स्वप्न था या समय
दु:ख था या घाव
जो रोज़ टीसता था सोते-जागते हुए
खाँसता हुआ डूबता था उनका सूर्य
थककर बेदम
एक दर्द की धूरी पर
घूम रही थी उनकी पृथ्वी
बदरंग-फटे शामियाने-सा
हवा में
ज़ोर-ज़ोर से हिलता था उनका आकाश
उनकी नींद और स्वप्न के अंधकार में
एक लालटेन जलती थी ज़रा देर
और तेल खत्म होते ही भभकर बुझ जाती थी
बस वह चंद्रमा था
जो जलभरी बाल्टी में उतरकर
थोड़ी देर के लिए उनका हो जाता था।
देह-अंत
वह एक देह का अंत था
और उसके बाद कोई आरंभ नहीं था
आरंभ था तो दु:ख के उस रास्ते का
बचते-बचते भी
जिस पर पड़ ही जाता था पाँव
पड़ ही जाती थी आँख में उसकी धूल
टहनी हरी थी मगर सूनी
झड़ चुका था फूल
और टहनी की आत्मा में
अब भी रची-बसी थी उसकी महक
यह एक फूल का अंत था
और उसके बाद अनंत स्मृतियों के
अरण्य का आरंभ था
पत्तों में छिपकर जहाँ लगातार...
बोलता था कोई पक्षी
और हम नंगे पाँव भटकते थे
आम के पत्ते उगते समय लाल थे
बादाम के पत्ते झड़ते समय
इनके बीच हम अपना हरा बुनते थे
फूल नहीं, वे सपने थे
मुँह अंधेरे जिन्हें हम चुनते थे
भोर की झाडिय़ों से।
सोनझर
सोनझरिया है इनकी जाति
और ये सोनझर हैं
रेत और मिट्ïटी से सोना झराते हुए
सोंदुल है इनकी प्रिय नदी
जाने किन पहाड़ों से निकलकर
जो पार करती आती है सोने की खदान
जिसके जल में
सोने के कण ढुलते आते हैं
जेठ में सूखी हुई सोंदुल की रेत झराते हैं सोनझर
बहुत धीरज और जीवटता के साथ
जहाँ कहीं भी दिखती है सोने की चमक
सोनझर पहुँचते हैं उस तक
अपने अंधेरों को पार करते हुए
गंदे नाले या संकरी नली के भीतर
गंदगी या बदबू की परवाह किए बिना
ये बैठे रहते हैं इत्मीनान से अपना झरिया लिए
सराफा बाज़ार में
सुनार की दुकानों के आसपास
नाली के कचरे, मिट्ïटी और रेत को
तसले जैसी लकड़ी की बनी झरिया में ये छानते हैं
और घंटों साफ करके इकट्ïठा करते हैं
सोने-चाँदी का एक-एक कण
ये हिलते तक नहीं एक जगह से
जब तक कुछ पा नहीं लेते
चाहे हो जाए सुबह से शाम
यह इनकी पसंद का नर्क है
जिसे चुना है इन्होंने
रोज़ी-रोटी का एकमात्र सहारा
ये किसी से कुछ नहीं माँगते
ये किसी से कुछ नहीं बोलते
सिर्फ एक तारवाला ब्रश
तामचीनी का एक पात्र
झाड़ू और झरिया लिए ये आते हैं
अपने पूरे कुटुम्ब के साथ
और जहाँ कहीं दिखती है सुनार की दुकान
ये डालते हैं वहीं अपना डेरा
इन्हें भीख माँगते किसी ने नहीं देखा
ये भरोसा करते हैं अपनी मेहनत पर
भरोसा करते हैं अपने पारंपरिक पेशे पर
इनकी अंधेरी जिंदगी में
कभी-कभी दिखती है सोने की चमक
सोना इन्हें कंचन-मृग-सा भरमाता है
भटकाता है अपने पीछे
ये सोनझर हैं मगर इनकी बहनें
नकली कर्णफूल पहनकर मुस्कुराती हैं
और पीतल के गहने पहनकर रोती हुईं
विदा होती हैं इनकी बेटियाँ।